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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 159
यह निश्चय से नहीं है। किसी दोष के न लगने पर वे 1 करोड़ पूर्व भी एक स्थान पर ठहर सकते हैं। दोष होने पर एक महीने में भी विहार कर सकते हैं। इनकी विशेष जानकारी कल्पसूत्र में प्राप्त होती है।
इस तरहं ये 10 कल्प कहे गए हैं। कल्पसूत्र में इन्हीं 10 कल्पों का विस्तृत विवेचन है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में ये दसों कल्प स्थित कल्प अर्थात् अवश्य कर्त्तव्य हैं। मध्यम 22 तीर्थंकरों के लिए शय्यातर पिंड कल्प, कृतिकर्म कल्प, व्रतकल्प, ज्येष्ठ कल्प ये 4 कल्प आवश्यक है एवं शेष 6 अनवस्थित हैं यानी आवश्यकता पडने पर ही किए जाते हैं, ऐसा पंचाशक कल्पसूत्र आदि में वर्णन है।
जिज्ञासा साधु सब समान हैं, तो उनके कल्प का भेद क्यों हुआ ? समाधान - ऋषभदेव जी के समय के लोग ऋजु और जड़ होते थे । यथा दृष्टान्तऋषभदेव जी के तीर्थ में किसी आचार्य का शिष्य स्थंडिल भूमि पर गया । बहुत देर वापिस आया। गुरु ने कारण पूछा। शिष्य ने सरलता से कहा- मार्ग पर नाटक मंडली नाटक कर रही थी। सो देखने के लिए मैं खड़ा रहा। गुरु ने समझाया "हम साधु हैं। हमें नाटक देखना नहीं कल्पता । " शिष्य ने तहत्ति कहा। पुनः एक बार वही शिष्य बाहर गया और देर से आया। गुरु ने कारण पूछा। शिष्य ने ऋजुता से कहा मार्ग पर नर्तकी नृत्य कर रही थी । उसे देखने के लिए खड़ा था। तब गुरु ने कहा- तुम्हें पहले मना किया था न ? तब शिष्य ने जड़ता से कहा " आपने तो नट देखने से मना किया था, नर्तकी देखने से नहीं ।" गुरु ने उसे समझाया और शिष्य ने सरलता से स्वीकार किया । इस दृष्टांत में ऋजुता, सरलता से वह सत्यशील, विनयवंत रहा किन्तु जड़ता के कारण गुरु का भाव नहीं समझ पाया ।
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तीर्थंकर महावीर के साधु वक्र और जड़ कहे हैं। तथा मध्य के 22 तीर्थंकरों के समय के साधु व मनुष्य ऋजु त्र प्राज्ञ कहे गए हैं (वे सरल भी हैं और ज्ञानवान भी) । इस कारण ही तीर्थंकरों के शासन कल्प की व्यवस्था भिन्न है। पार्श्वनाथ जी की परंपरा के केशी श्रमण व महावीर स्वामी जी के शिष्य गणधर गौतम का मिलन - ज्ञानचर्चा इस संदर्भ ऐतिहासिक है।
जिस प्रकार बीज के दग्ध हो जाने पर फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार कर्म रूपी बीजों के दग्ध हो जाने पर भव रूपी अंकुर फिर उत्पन्न नहीं होते अर्थात् मुक्त जीव फिर जन्म धारण नहीं करते।
दशाश्रुतस्कन्ध ( 5/15)
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