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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 154 जिज्ञासा - शत्रुंजय (सिद्धाचल) तीर्थ शाश्वत है। क्या सभी तीर्थंकर शत्रुंजय पधारे है ? तीर्थंकरों ने शत्रुंजय की महिमा के विषय में क्या कहा है ? समाधान ऋषभदेव प्रभु के आदेश से गणधर पुण्डरीक स्वामी ने सवा लाख श्लोक प्रमाण श्री शत्रुंजय माहात्म्य नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसके पश्चात् श्री महावीर स्वामी जी के आदेश से गणधर सुधर्मा स्वामी ने मनुष्यों की योग्यता देख उसे संक्षेप करके 24,000 श्लोक प्रमाण रचना की जिसे वर्षों बाद धनेश्वर सूरि जी ने लिपिबद्ध किया। शत्रुंजय माहात्म्य के अनुसार श्री अरिष्टनेमि जी तलेटी पर पधारे एवं अन्य सभी 23 तीर्थंकर ऊपर पर्वत पर पधारे एवं अनेकों तीर्थंकरों के समवसरण भी सिद्धाचल गिरिराज की पावन भूमि पर हुए । श्री अजितनाथ स्वामी जी ने फरमाया है- यह शाश्वत और सर्वदा स्थिर शत्रुंजय पर्वत संसार - सागर में डूबने वाले लोगों को जीवनदान देने वाला है। इस शैल (पर्वत) और शील की सेवा करने से उत्तम फल मिलता है । इस शत्रुंजय पर्वत पर जितने सिद्ध हुए हैं और होंगे, उन्हें जानने पर भी केवली एक ही जीभ होने से कहने में समर्थ नहीं हैं। - श्री अभिनन्दन स्वामी जी ने फरमाया है- यह शत्रुंजय पर्वत अन्तरंग राग द्वेषमोह रूप शत्रुओं को नष्ट करने वाला, सब पापों को दूर करने वाला और मुक्ति का लीलागृह है। जब अरिहंत भगवान मुक्त हो जाएँगे, तब यह तीर्थ सबका कल्याण करने वाला होगा। श्री चन्द्रप्रभ स्वामी जी ने फरमाया है- इस अस्थिर संसार में शत्रुंजय तीर्थ और अरिहंत भगवान का ध्यान, ये श्रेष्ठ आलंबन हैं। जिस प्रकार देवों में जिनेश्वर देव, ध्यानों में शुक्ल ध्यान, व्रतों में ब्रह्मचर्य, धर्मों में श्रमणधर्म मुख्य है, उसी तरह तीर्थों में शत्रुंजय तीर्थ मुख्य है । श्री शान्तिनाथ स्वामी जी जिनेश्वर भगवान की सेवा और संघ ये श्री महावीर स्वामी जी ने फरमाया है- दूसरे तीर्थों में किया हुआ पाप कुछ जन्मों तक रहता है किन्तु शत्रुंजय में किया हुआ पाप तो प्रत्येक जन्म में बढता ही रहता है । शत्रुंजय पर चढ़ने वाले अनायास ही लोक के अग्रभाग मोक्ष पर ही चढते हैं क्योंकि यह पापमोचक तीर्थ है। फरमाया है - शील, शत्रुंजय पर्वत, समताभाव, शिवपद मोक्ष के गवाह हैं। इस प्रकार अनेक तीर्थंकरों ने तीर्थाधिपति शत्रुंजय तीर्थ की महिमा का वर्णन किया है। इसका विस्तृत विवेचन शत्रुंजय माहात्म्य में प्राप्त होता है ।
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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