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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 153 ___ शौरसेनी फारसी, मागधी, पाली आदि अनेक भाषाओं में स्तोत्र रचे गए हैं जिनमें तीर्थंकर प्रभु की भक्ति की गई है। स्तोत्र साहित्य में तीर्थंकर भक्ति का आधार आवश्यक नियुक्ति में भक्ति के फल की चर्चा करते हुए कहा है कि भत्तीइ जिणवराणं खिज्जंती पुव्वसंचिया कम्मा। भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं॥" अर्थात् जिनेश्वर की भक्ति से पूर्व संचित कर्म क्षीण होते हैं, राग द्वेष समाप्त होकर आरोग्य, बोधि और समाधि लाभ होता है। __तीर्थंकरों की स्तवना से पारमार्थिक व लौकिक दोनों मनोरथ पूर्ण होने की भावना रहती है, किन्तु मूलतः स्तोत्र के माध्यम से स्तुतिकर्ता अपने उपास्य के गुणों के वर्णन के साथ आत्मकल्याण की भावना भी रखता है। भक्त अपने इष्ट देव की भक्ति करता है, उनके गुणों का संस्तवन करता है, उसके पीछे आशा होती है इष्ट देव की तरह बनने की। ___ कहा गया है- “गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयः" यानी जैन दर्शन, व्यक्ति का नहीं, अपितु गुण का उपासक है। तीर्थंकर देवाधिदेव के गुणोत्कीर्तन से हमारी जिह्वा पवित्र हो, उनकी शुद्धात्मा के गुण हमारी आत्मा में भी आए, इसी मंगल आधार से स्तोत्र साहित्य में तीर्थंकर स्तुति का प्रचलन हुआ। जो मनुष्य काम-भोगों को चाहते तो हैं, किन्तु परिस्थिति विशेष से उनका सेवन नहीं कर पाते हैं, वे भी दुर्गति में जाते हैं। - उत्तराध्ययन (9/53)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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