________________
तीर्थंकर : एक अनुशीलन
84
फल
स्वप्न 1. मैं भयंकर ताल पिशाच को मार रहा हूँ। | आप मोहनीय कर्म को नष्ट करेंगे। 2. मेरे सामने श्वेत पक्षी उपस्थित है। आप सर्वदा शुक्लध्यान में रहेंगे। 3. मेरे समक्ष रंग-बिरंगा पुंस्कोकिल गा रहा है। आप विविध ज्ञानमय द्वादशांग श्रुत की प्ररूपणा
करेंगे। 4. दो रत्नपुष्पमालाएँ मेरे सम्मुख हैं। | सर्वविरति और देशविरति धर्म की प्ररूपणा आप
करेंगे। 5. मेरे सम्मुख एक श्वेत गोकुल है। | चतुर्विध संघ आपकी सेवा करेगा। 6. विकसित पद्मसरोवर मेरे सामने स्थित है। चतुर्विध देवतागण आपकी सेवा में रहेंगे। 7. मैं महासमुद्र को तैर कर पार कर रहा हूँ। | संसार-सागर को पार करेंगे व भवभ्रमण का अंत
करेंगे। 8. जाज्वल्यमान सूर्य विश्व को आलोकित कर | केवलज्ञान और केवलदर्शन आपको प्राप्त करेंगें।
रहा है। 9. मैं मानुषोत्तर पर्वत को घेर रहा हूँ। यत्र-तत्र-सर्वत्र कीर्ति-कौमुदी चमकेगी। 10.मैं मेरु पर्वत पर चढ रहा हूँ। समवसरण में बैठकर आप धर्म की संस्थापना करेंगे।
छद्मस्थावस्था में प्रथम बाईस तीर्थंकरों ने केवल आर्यक्षेत्र में ही विहार किया। तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं तीर्थंकर महावीर ने कर्म काटने हेतु आर्य व अनार्य, दोनों क्षेत्रों में विहार किया। इन दोनों ने ही कठोर उपसर्ग सहन किए। भगवान महावीर स्वामी जी जब चिन्तन मनन में लीन होते थे, उस समय कोई पूछता था कि यहाँ कौन खड़ा है? तो अगर भगवान निश्चल ध्यान में होते थे तो उत्तर नहीं देते थे किन्तु अगर ध्यान में नहीं होते थे तो कहते थे - ‘अहमंसि त्ति भिक्खु' यानी मैं भिक्षु हूँ। यदि वह व्यक्ति उस स्थान को छोड़ने के लिए कहता, क्रोधित होता तो अवसरानुकूल होकर वे स्थान छोड़ देते थे अथवा कटु वचन सहन करते थे। विहार में प्रायः प्रभु एक रात्रि गाँव में और 5 रात्रि शहर में रह लेते थे। परिषह-शमनकर्ता तीर्थंकर
साधनाकाल के दौरान तीर्थंकरों को अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। आपत्ति आने पर भी संयम में स्थिर रहने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जो शारीरिक एवं मानसिक कष्ट सहने चाहिए, उन्हें परिषह कहते हैं। समवायांग उत्तराध्ययन आदि आगमों में 22 परिषह कहे हैं
अपने द्वारा किसी जीव को पीड़ा पहुँचाने पर भी जिसके मन में पछतावा नहीं होता, उसे निर्दय कहा जाता है।
- बृहत्कल्पभाष्य (1319)