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________________ तीर्थंकरों की छद्मस्थ-अवस्था दीक्षा ग्रहण करने से केवलज्ञान प्राप्त करने तक की अवस्था को छद्मस्थ-अवस्था कहा गया है। कहा गया है- “छद्मनि तिष्ठन्तीति छद्मस्था:" अर्थात् जो आवरण में अवस्थित हैं, कर्मों से बँधे हैं, अवीतराग हैं, वे छद्मस्थ कहलाते हैं। ___ ज्यादातर तीर्थंकर सम्पूर्ण छद्मस्थावस्था में मौन ही रहते हैं। क्योंकि यह उनकी साधना का अभिन्न अंग होता है। तीर्थंकर छद्मस्थ अवस्था में धर्म का उपदेश नहीं देते। इस साधना काल में स्वकल्याण एवं स्वयं के घातिकर्म-क्षय का उद्देश्य प्रमुख रहता है। मौन रहकर वे मन को, चित्त को एकाग्र रख कर्मों की निर्जरा करते हैं। इसी हेतु से वे अत्यल्प बोलते हैं। वे केवल चार कारणों से बोलते हैं 1. याचना करने के लिए 2. मार्ग पूछने के लिए 3. आज्ञा लेने के लिए 4. प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अपने चित्त को साधना में लीन रखने के लिए वे सतत काऊसग्ग मुद्रा में रहते हैं। छद्मस्थावस्था में वे कभी सोते नहीं हैं। वे अपने मन को इतना दृढ़ बना लेते हैं कि उन्हें निद्रा आती ही नहीं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को एक हजार वर्षों में केवल एक अहोरात्रि (24 घंटे) नींद आई। मध्य के 22 तीर्थंकरों को नींद बिल्कुल भी नहीं आई। अंतिम तीर्थपति श्री महावीर स्वामी को दो घड़ी (48 मिनट) नींद आई। इसी दो घड़ी की निद्रा में प्रभु ने पश्चिम प्रहर में 10 स्वप्न देखे जिनका फल उत्पल निमित्तज्ञ ने बताया। स्वप्न एवं फल इस प्रकार है सामान्यतया - तीर्थंकर स्वप्न नहीं देखते क्योंकि वे सोते ही नहीं हैं। महावीर स्वामी द्वारा यह स्वप्नदर्शन की घटना अपने में अपूर्व है। रक्त से सना वस्त्र रक्त से धोने से स्वच्छ नहीं होता है, उसके लिए तो शुब्द जल की आवश्यकता है। - ज्ञाताधर्म कथा (1/5)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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