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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 127
कहा गया है। कारण - सूर्य तो सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है किन्तु तीर्थंकर अपने केवलज्ञान के द्वारा समस्त द्रव्यों, क्षेत्रों, कालों व भावों को प्रकाशित करते हैं। अतएव तीर्थंकरों को सूर्यों से भी अधिक प्रकाश करने वाला कहा गया है। सागरवरगंभीरा - श्रेष्ठ सागर अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्र से भी अधिक गम्भीर। स्वयंभूरमण समुद्र की गंभीरता सर्वविदित ही है। तीर्थंकर भी ज्ञान, ध्यान एवं साधना से युक्त होने के कारण गम्भीर होते हैं। किन्तु यहाँ तीर्थंकरों को स्वयंभूरमण से भी गंभीर माना गया है। कारण-समुद्र की गहराई एक बिन्दु पर आकर समाप्त हो जाती है एवं तूफान आदि आपदाओं में महासमुद्र भी गम्भीर नहीं रह पाता लेकिन तीर्थंकरों के गांभीर्य का कोई आदि अन्त नहीं है। प्रत्येक परिस्थिति में वे गंभीर रहते हैं। इसीलिए तीर्थंकर श्रेष्ठ समुद्र से भी अधिक गंभीर हैं।
जिज्ञासा - तीर्थंकर परमात्मा इस विश्व की सर्वोत्कृष्ट विभूति हैं तो वे तीर्थ को नमस्कार क्यों करते हैं?
___समाधान - तीर्थंकर परमात्मा समवसरण में देशना देने से पूर्व हमेशा ‘णमो तित्थस्स' कहकर साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतर्विध संघ को वन्दन करते हैं। इसके अनेक कारण हैं। तीर्थंकर भगवन्त भी पूर्वजन्मों में इस तीर्थ के अंग रहे। साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप किसी न किसी पद में रहकर धर्माराधना कर ही वे तीर्थंकर बन सके। इसलिए तीर्थ का ऋण अनन्त है। णमो' शब्द विनय का सूचक है। प्रभु किसी व्यक्तिवाचक संज्ञा को वंदन नहीं करते बल्कि गुणवाचक, गुणनिधान तारक तीर्थ को वंदन करते हैं। यह उनका लोकोत्तर विनय है।
तीर्थंकर के अभाव में तीर्थ ही पथ-प्रदर्शक होता है। आज भी जब एक आचार्य अपने शिष्य को आचार्य पदवी देता है तो वे स्वयं अपने पाट से नीचे उतरकर नूतन आचार्य को वंदन करते हैं। यह भविष्योन्मुखी आचार है कि गुरु द्वारा वन्दनीय यह आचार्य संघ द्वारा भी वैसे ही आदर और सम्मान का पात्र होगा जैसे कि गुरु थे। उसी प्रकार का महत्त्व समझकर भी तीर्थंकर तीर्थ को नमन करते हैं।
जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियाँ नहीं बढ़ती और जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं हो जाती, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। - दशवैकालिक (8/36)