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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 3 तीर्थ का लौकिक, लोकसम्मत अर्थ यथा शत्रुजय तीर्थ, अष्टापद तीर्थ इस प्रसंग पर उपयुक्त नहीं है। जैन साहित्य में तीर्थ शब्द का विवेचन दो अपेक्षाओं से किया है- द्रव्य तीर्थ एवं भावतीर्थ। एवं तीर्थंकर को दोनों तीर्थों का प्रवर्तक, निर्माता, संस्थापक बनाया है। द्रव्यतीर्थ का अर्थ है- धर्मशासन। धर्मसंघ। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ये धर्म हैं। इस धर्म को धारण करने वाले श्रमण (साधु) श्रमणी (साध्वी) श्रमणोपासक (श्रावक) एवं श्रमणोपासिका (श्राविका) हैं। इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा है, धर्मसंघ कहा गया है। आवश्यक चूर्णि में कहा है- “तित्थं चाउवन्नो संघो तं जेहि कयं ते तित्थकरा।" अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र इत्यादि गुणयुक्त तीर्थ चतुर्विध संघ है एवं उसके संस्थापक ही तीर्थंकर हैं। भावतीर्थ का अर्थ है प्रवचन। प्रवचन पद का अर्थ यहाँ श्रुतज्ञान, आगम, द्वादशांगी है। एवं प्रवचन के प्रदाता, श्रुतज्ञान के स्रोत एवं आगमों के कर्ता तीर्थंकर कहलाते हैं। विशेषावश्यक .. भाष्य में लिखा है- “तीर्थं श्रुतज्ञानं तत्पूर्विका अर्हत्ता तीर्थंकरता" अर्थात् तारक तीर्थ के समान होने से श्रुतज्ञान को तीर्थ कहा गया है और आगमकर्ता ही तीर्थंकर है। इस प्रकार तीर्थंकर शब्द की व्याख्या विस्तृत, विशाल एवं गूढ़ है जो आगम साहित्य में यत्र-तत्र बिखरी हुई है। तीर्थंकर शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य भद्रबाहु स्वामीजी ने लिखा है - अणुलोमहेउतच्छीया य जे भावतित्थमेयं तु । कुव्वंति पगासंति परमात्मा ते तित्थयरा हियत्थकरा ॥ बहुत कम शब्दों में तीर्थंकर परमात्मा के आत्मीय स्तर का निरूपण किया है। 'अनुलोम' यानी अनुकूल। संसार के किसी भी प्राणी के प्रति विरोध व्यवहार करना उनकी प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं होता। स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, ग्लान, जिनकल्पी साधु, स्थविरकल्पी साधु इत्यादि सभी के अनुकूल उत्सर्ग और अपवाद धर्ममार्ग का तीर्थंकर प्रभु प्रतिपादन करते हैं। ‘हेतु' यानी कारण, लक्ष्य। संसार के सभी प्राणियों का श्रेष्ठ आचरण हो, सभी मोक्ष पद को प्राप्त कर सके इस करुणा भाव से तीर्थ की स्थापना का लक्ष्य रखते हैं। तत्शीलता यानी जिनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं है। मोक्ष के जिए मार्ग को वे प्रदर्शित करते हैं उसका पूर्ण पालन वे स्वयं भी करते हैं। ऐसे तीर्थंकर 'हितार्थंकर' होते हैं यानी सभी प्राणियों का हित किसमें निहित है, इसका यथार्थ बोध उन्हें होता है और ऐसी ही हितकारीवाणी की गंगा वे बहाते हैं। अज्ञानी आत्मा क्या करेगा ? वह पुण्य और पाप को कैसे जान पायेगा ? - दशवैकालिक (4/10)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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