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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन * 100 अरिहंताणं' अर्थात् 15 छत्र होते हैं। चार दिशाओं में 12 एवं सबसे ऊपर ऊर्ध्व दिशा में 3 छत्रकुल 15 छत्र। बलि विधान : यहाँ बलि का अर्थ किसी की हिंसा नहीं है। आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्प भाष्य, लोकप्रकाश ग्रन्थ में अद्भुत प्रकार के बलि विधान का उल्लेख है - परमात्मा की देशना श्रवण करने आये चक्रवर्ती आदि अग्रिम राजा अथवा श्रावक या अमात्य, इनकी अनुपस्थिति में नगरजन या देशवासी अद्भुत बलि तैयार करवाते हैं। उज्ज्वल वर्ण वाले, सुगंध से युक्त, पतले, अत्यन्त कोमल, पवित्र बलवती स्त्री द्वारा फोतरा रहितं कूटे हुए ऐसे अखण्ड अणीशुद्ध चार प्रस्थ कलमशाली चावलों को सर्वप्रथम शुद्ध पानी से धोकर उन्हें अर्ध पक्व (पूरे पके नहीं) किया जाता है। फिर उन अर्ध पक्व चावलों को रत्नों के थालों में डाला जाता है। सोलह शृंगार से सुसज्जित सौभाग्यवती स्त्री उस थाल को अपने सिर पर लेती है। उस बलि को सुगन्धित और सुन्दर बनाने हेतु देवता उसमें दिव्य और सुगन्धित पदार्थ डालते हैं। इस प्रकार से बलि तैयार किया जाता है। तैयार बलि को गीत-गान, वार्जिन आदि ठाट-बाट के साथ महोत्सवपूर्वक धार्मिक लोगों के द्वारा इसकी महिमा गाते हुए श्रावकों द्वारा जहाँ पर उसे बनाया है वहाँ से लेकर पूर्व द्वार से समवसरण में लाया जाता है। समवसरण में बलि के प्रवेश होते ही क्षण मात्र के लिए जिनेश्वर परमात्मा देशना फरमाना बंद कर देते हैं। फिर चक्रवर्ती आदि श्रावकवर्ग बलि सहित परमात्मा की तीन प्रदक्षिणा देते हैं, फिर पूर्व दिशा में परमात्मा के सम्मुख आकर उस बलि को मुट्ठियों में भरकर सभी दिशाओं में उछालते हैं। जिसके भाग्य में जितना होता है वह उस प्रमाण में उसे प्राप्त करता है। बलि की विधि पूर्ण होते ही परमात्मा तीसरे गढ़ से उतरकर दूसरे गढ़ में ईशान कोण में बने देवच्छंद में जाते हैं। सम्पूर्ण बलि के आधे भाग (1/2) कों देवता पृथ्वी पर गिरने से पूर्व ही उसे अधर-अधर से ग्रहण कर लेते हैं। देवताओं के ग्रहण करने के पश्चात् शेष बचे आधे भाग का आधा अर्थात् सम्पूर्ण का एक चौथाई (1/4) भाग बलि को तैयार करवाने वालों को मिलता है। जैसे बरसात की बूँद के गिरने से अग्नि शांत होती है, वैसे ही बलि के एक कण को सिर पर रखने से सर्व रोग शान्त हो जाते हैं। छह महीने तक कोई नया रोग उत्पन्न नहीं होता है। जो एक को जानता है, वह सबको जानता है, सारे जगत् को जानता है और जो सबको जानता है, सारे जगत् को जानता है, वह एक को, अपने आपको जानता है। - आचाराङ्ग (1/3/4/2)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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