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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 101 तीर्थंकरों की देशना एवं तीर्थ स्थापना
जब प्रथम समवसरण का निर्माण होता है तब साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका की पर्षदाएँ खाली (रिक्त) रहती हैं क्योंकि उस समय तक तीर्थ की स्थापना नहीं होती। प्रथम देशना के समय जैसे ही लोग श्रावक-श्राविका के व्रत ग्रहण करते हैं अथवा चारित्र ग्रहण करते हैं वे परिषद में स्वस्थान ले लेते हैं।
तीर्थंकरों के साथ उनके अतिशयसूचक प्रातिहार्य भी पधारते हैं। अशोक वृक्ष के नीचे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठकर सर्वप्रथम प्रभु की दिव्य वाणी को सुन भव्य श्रोतागण सभी काम छोड़कर समवसरण में प्रवेश करते हैं। घनिष्ठ वैरी भी अपने वैर को विश्राम देकर उल्लासपूर्वक प्रभु की देशना सुनते हैं। वहाँ कभी भी जगह की कमी नहीं पड़ती। तीर्थंकरों की देशना कभी निष्फल नहीं जाती अर्थात् कोई-न-कोई तो श्रावक धर्म या संयमधर्म अंगीकार करता ही है। जो व्यक्ति श्रमण और श्रमणी के पंचमहाव्रत के कठोर कटकाकीर्ण महामार्ग को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं, वे श्रमणोपासक (श्रावक) व श्रमणोपासिका (श्राविका) के व्रतों को ग्रहण करते हैं। इस प्रकार श्रमणश्रमणी. श्रावक-श्राविकारूप चतर्विध तीर्थ की संस्थापना कर तीर्थंकर कहलाते हैं।
तत्पश्चात् सभी दीक्षित श्रमणों में से जिन व्यक्तियों का गणधर नाम कर्म उदय में आता है, उसे तीर्थंकर 'गणधर' का पद प्रदान करते हैं। इस अवसर पर इन्द्र महाराज स्वयं रत्नथाल में सौगन्धिक रत्नचूर्ण (वासक्षेप) लेकर खड़े होते हैं। गणधरों के सिर पर तीर्थंकर अनुक्रम से वासक्षेप करते हैं। इस प्रकार तीर्थ की स्थापना होती है।
गुणों की दृष्टि से तीर्थंकर श्रमणों को 7 भागों में विभक्त करते हैं1. केवलज्ञानी - प्रथम श्रेणी के पूर्ण ज्ञानी श्रमण। 2. . मनःपर्यवज्ञानी - समनस्क प्राणियों के मानसिक भावों के परिज्ञाता श्रमण। 3. अवधिज्ञान - सीमित क्षेत्र के रूपी पदार्थों के ज्ञाता श्रमण। 4. वैक्रियलब्धिधारी - योगसिद्धि प्राप्त ऋद्धिधारी, ध्यान में लीन श्रमण।
चतुर्दशपूर्वी - संपूर्ण अक्षर ज्ञान में पारंगत श्रमण। 6. वादी - तर्क और दार्शनिक चर्चा में प्रवीण श्रमण।
सामान्य साधु - अन्य सभी श्रमण जो अध्ययन, तप, ध्यान, सेवा, शुश्रूषा, आवश्यकादि किया करते थे।
वही अनशन तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमङ्गल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो और नित्य की योग-धर्म क्रियाओं में विघ्न न आए।
- मरणसमाधि (134)