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________________ तीर्थंकर प्रतिमा चिन्तन तीर्थंकर परमात्मा चारों निक्षेप ( नाम - स्थापना - द्रव्य - भाव) द्वारा पूजनीय होते हैं। उनका भाव निक्षेप वंदनीय - पूजनीय होने से उनके नाम और स्थापना निक्षेप भी उतने ही वंदनीय और पूजनीय हैं। उनकी अनुपस्थिति में उनकी प्रतिमा हमें उनसे जोड़ने में अद्भुत सहायता करती है। परमात्मा के ध्यान, उनकी पूजा के लिए प्रतिमा एक अद्वितीय आलम्बन है। प्रतिमापूजन से सम्यक्त्व की दृढ़ता होती है एवं परमात्मपूजन का साक्षात् अवसर मिलता है । यद्यपि सभी तीर्थंकर परमात्माओं की प्रतिमाएँ प्रायः एक सही ही प्रतीत होती हैं, उनके चिह्न अथवा फण आदि के द्वारा उनकी पहचान की जाती है। तीर्थंकर प्रतिमा पर फणों का रहस्य जिनप्रतिमा की श्रृंखलाओं में दो तीर्थंकर की प्रतिमाओं पर छत्र के रूप में सर्प-फण दृष्टिगोचर होते हैं। वे हैं - श्री सुपार्श्वनाथ जी एवं श्री पार्श्वनाथजी । श्री सप्ततिशतस्थान प्रकरण में लिखा है इग पण नव य सुपासे, पासे फणतिन्नि सग इगार कमा। फणिसिज्जासुविणाओ, फणिदंभन्तीइ नन्नेसु ॥ 23 ॥ सप्तम श्री सुपार्श्वनाथ प्रभु के मस्तक ऊपर छत्ररूप में एक, पाँच या नौ फण हो सकते हैं तथा वीसवे श्री पार्श्वनाथ प्रभु के मस्तक पर तीन, सात या ग्यारह फण होते हैं। इसके पीछे भी कारण है। आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. फरमाते हैं कि त्रिषष्टिशलाकापुरुष के श्री सुपार्श्वनाथ चरित्र में सुप्तमेकफणे पंचफणे नवफणेऽपि च । नागतल्पे ददर्श स्वं, देवी गर्भे प्रवर्द्धिनी ॥ ज्ञान से भावों और पदार्थों का सम्यग् बोध होता है, दर्शन से श्रद्धा होती है, चारित्र से कर्मों का निरोध होता है और तप से आत्मा परिशुद्ध होती है। - उत्तराध्ययन (28/35)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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