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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 95 अनुत्तर ज्ञान, अनुत्तर दर्शन ( क्षायिक समकिती, अनुत्तर चारित्र, अनुत्तर तप, अनुत्तर वीर्य, अनुत्तर क्षमा, अनुत्तर निर्लोभता (सन्तोष), अनुत्तर सरलता, अनुत्तर मार्दव और अनुत्तर लाघव । यहाँ 'अनुत्तर' शब्द का अर्थ है कि केवलज्ञानी भगवन्तों गुण सभी छद्मस्थ जीवों के गुणों से श्रेष्ठ होते हैं । तीर्थंकर छद्मस्थावस्था में किसी को भी उपदेश नहीं देते। केवलज्ञान के पश्चात् ही वे धर्मदेशना देते हैं। ट-महाप्रातिहार्य तीर्थंकर प्रभु को केवलज्ञान प्राप्त होते ही तीर्थंकर नामकर्म के उदय से आठ प्रातिहार्य देवताओं की भक्ति के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। शक्रेन्द्र प्रभु को शक्रस्तव (णमोत्थुणं) से वंदन करता है एवं तत्पश्चात् देवता उल्लास उमंग से आकर प्रभु की भक्ति स्वरूप अष्ट प्रातिहार्य प्रकट करते हैं । प्रातिहार्य शब्द 'प्रतिहार' शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है - सेवक / द्वारपाल / अंगरक्षक । केवलज्ञान के बाद ये सदा तीर्थंकर प्रभु के सेवक की तरह साथ रहते हैं, इसीलिए इन्हें प्रातिहार्य कहा है - " प्रतिहारा इव प्रातिहारा : सुरपति नियुक्ता देवास्तेषां कर्माणि कृत्यानि प्रातिहार्यणि" । आज तक जितने भी तीर्थंकर हुए है, उन सभी को ही ये 8 महाप्रातिहार्य थे। वे इस प्रकार हैं अष्ट 1. अशोक वृक्ष न शोक इति अशोकः । जो सौख्य- स्वस्ति प्रदान करे वह अशोक है। प्रभु का भी ऐसा ही आचरण होने से देवतागण प्रभु के शरीर से 12 गुणा ऊँचे अशोक वृक्ष की रचना करते हैं। यह समवसरण के बीच में होता है। इसकी विशालता के कारण किसी को भी धूप, बारिश आदि का अनुभव नहीं होता है । 2. सुरपुष्पवृष्टि - अपने हर्ष को प्रकट करने हेतु देवतागण कल्पवृक्ष के बहुविध रंगों के अतिसुंदर पुष्पों की वर्षा करते हैं । वे अधोमुखी वृत वाले ऊपर से विकसित दलों वाले, देवों द्वारा विकर्षित होते हैं। 3. दिव्यध्वनि - वीणा, शुषिर, मृदंग इत्यादि वाजिंत्रों के द्वारा देवता प्रभु की सेवा हेतु उनकी वाणी में स्वर पूरते हैं। इससे प्रभु की वाणी एक योजन तक फैलाई जाती है और उनका स्वर कर्णप्रिय बनता है। जिस प्रकार भयाक्रान्त के लिए शरण की प्राप्ति हितकर है, जीवों के लिए उसी प्रकार, अपितु इससे भी बढकर भगवती अहिंसा हितकर है। प्रश्नव्याकरणसूत्र (2/1)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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