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________________ केवलज्ञान कल्याणक केवलज्ञान का अर्थ पूर्ण ज्ञान है। मति आदि ज्ञान की अपेक्षा बिना, त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् हस्तामलकवत् जानना केवलज्ञान है। केवल पडिपुण्णे णेयाउए संसुद्धे। अर्थात् केवलज्ञानी परिपूर्ण ज्ञान का धारक बन जाता है। वही जन-मानुष को उपदेश देने की क्षमता रखता है। केवलज्ञानी ही अरिहंत कहलाता है क्योंकि उसने 8 कर्मों में से चार कर्मशत्रुओं का सर्वनाश किया होता है। यह ज्ञान आने के बाद कभी जाता नहीं। तीर्थंकर परमात्मा छद्मस्थावस्था में रहकर कर्मनिर्जरा के हेतु से तपो साधना करते हैं, जिससे चार कर्म (घनघाति) का वे क्षय करते हैं। 1. मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्त आत्म-गुणरूप यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति हो जाती है। सर्वप्रथम इस कर्म का क्षय होता है। 2. ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। जिससे वे समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव का जानने से सर्वज्ञ हो जाते हैं। 3. दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलदर्शन की प्राप्ति होती है। जिससे उक्त पाँचों . को देखने से सर्वदर्शी हो जाते हैं। 4. अन्तराय कर्म का क्षय होने से अनन्त दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि व वीर्यलब्धि की प्राप्ति होती है, जिससे आत्मा अनन्त शक्तिमान होती है। इन तीन कर्मों का नाश एक साथ होता है। इसी के साथ प्रभु को सर्वज्ञत्व की प्राप्ति होती है। केवलज्ञान के बाद तीर्थंकर परमात्मा को संसार की एक-एक चीज़ का सुस्पष्ट दिग्दर्शन हो जाता है क्योंकि आत्मा के पूर्ण ज्ञान के गुण को जो ढक रहे थे, ऐसे घाती कर्म क्षय हो जाते हैं। स्थानांग सूत्र में केवलज्ञानी के 10 अनुत्तर बताए हैं - जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए। जो तुम अपने लिए नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए- बस, यही जिनशासन है, तीर्थंकरों का उपदेश है। - बृहत्कल्पभाष्य (4584)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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