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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 97 समवसरण का स्वरूप सूत्रकृतांग चूर्णि में लिखा है- समवसरंति जेसु दरिसणाणि दिट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि।' अर्थात् जहाँ अनेक दर्शन, दृष्टियाँ समवसृत होती हैं, वह समवसरण है। सर्वोत्कृष्ट पुण्य से प्राप्त होने वाले सभी आश्चर्य जहाँ पर एक साथ देखने को मिलते हैं, वह समवसरण है। अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - 'सम्यग् एकीभावेन अवसरण - एकत्रगमनं मेलापकः समवसरणम्' अर्थात् जहाँ विविध जीव एकत्र होते हैं, वह समवसरण है। समवसरणस्मव, आवश्यक नियुक्ति में समवसरण विषयक गम्भीर और सूक्ष्म चर्चा की गई है। यहाँ समझने हेतु संक्षेप में उल्लेख किया गया है। स्थानविशेष के तौर पर सामान्य भाषा में कहा जाए तो समवसरण देवों द्वारा रचित दैवीय वैभवों से युक्त वह स्थल है जहाँ पर देवता, मनुष्य, तिर्यञ्च एक साथ बैठकर परमात्मा की देशना सुन सकते हैं। चार निकाय के देवता मिलकर गोलाकार या चतुष्कोणाकार (चौरस) समवसरण बनाते हैं। इन्द्र महाराज की आज्ञा से वायुकुमार देवता संवर्तक वायु उत्पन्न करके (जहाँ समवसरण बनना होता है, उस भूमि पर) एक योजन प्रमाण क्षेत्र में से तृण-कंकर, घास, काँटे साफ कर देता है। मेघकुमार देव सुगंधित जल की वृष्टि करके सारी मिट्टी को स्थिर करके समूचे पृथ्वीतल को सुगंधमय बनाते हैं। व्यंतर देव सुवर्णरत्नमय शिला द्वारा पृथ्वीतल को मजबूत बनाते हैं एवं उस ऋतु की अधिष्ठायिका देवी से पंचवर्णी अचित्त पुष्पों की जानु प्रमाण वृष्टि करवाते हैं। तत्पश्चात् देवतागण 3 गढ रचते 1. प्रथम रजतमय गढ़ - भवनपति देव भूमिभाग के मध्य में मणिपीठ की रचना करके भूमितल से सवा कोस ऊँचा प्रथम चाँदी का गढ़ बनाते हैं। उस गढ़ पर चढ़ने के लिए एक हाथ लम्बी, एक हाथ चौड़ी, ऐसी 10,000 सीढ़ियाँ बनती हैं। उस दीवार के ऊपर सुवर्णमय कांगरे होते हैं। प्रथम गढ़ के चारों ओर 50 धनुष प्रमाण समतल भूमि होती है। इस गढ़ में रथ, पालखी आदि वाहन होते हैं। 2. द्वितीय सुवर्णमय गढ़ - प्रथम गढ़ से 1300 धनुष प्रमाण क्षेत्र छोड़कर ज्योतिष देव दूसरा सोने का गढ़ रचते हैं। उस गढ़ की दीवार आदि प्रथम गढ़ की तरह ऊँची व चौड़ी होती है। इस गढ़ की 5000 सीढ़ियाँ होती हैं। इसके ऊपर भी रत्न के कांगरे हैं। द्वितीय गढ़ के मध्य के ईशान कोण में प्रभु के विश्राम हेतु देवछंद की रचना व्यंतर देव करते हैं। इस गढ़ में तिर्यंच परस्पर वैर भाव को भूलकर एक साथ बैठते हैं। जैसे जगत् में मेरुपर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है। __ - भक्तपरिज्ञा (91)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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