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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 98 3. तृतीय रत्नमय गढ़ - द्वितीय गढ़ से 1300 धनुष प्रमाण क्षेत्र छोड़कर वैमानिक देव तीसरा गढ़ बनाते हैं। जिसकी प्रत्येक दिशा में 5,000 सीढ़ियाँ होती हैं। इसके ऊपर मणिरत्न के कांगरे होते हैं। तीसरे गढ़ के मध्य में प्रभु के देह से 12 गुणा ऊँचा अशोक वृक्ष होता है जिसके ऊपर चैत्य वृक्ष (जिसके नीचे प्रभु को केवलज्ञान होता है) होता है। जिसके मूल में 4 सिंहासन होते हैं। मुख्य पूर्वाभिमुख सिंहासन पर परमात्मा विराजमान होकर देशना देते हैं एवं अन्य तीन सिंहासनों पर व्यंतर देव प्रभु का प्रतिबिम्ब स्थापित करते हैं। सभी अष्ट प्रातिहार्य विराजमान होते हैं। तीसरे गढ़ में 12 पर्षदाएँ होती हैं जहाँ मनुष्य, देव एवं देवियाँ धर्मदेशना सुनते हैं। दिशा कौन होता है अवस्था प्रवेश द्वार 1. आग्नेय कोण - गणधर आदि साधु भगवन्त बैठकर पूर्व द्वार साध्वी जी खड़े होकर पूर्व द्वार वैमानिक देवियाँ खड़े रहकर पूर्व द्वार 2. नैऋत्य कोण - ज्योतिष देवियाँ खड़े रहकर दक्षिण द्वार व्यंतर देवियाँ खड़े रहकर . दक्षिण द्वार भवनपति देवियाँ खड़े रहकर दक्षिण द्वार ____ 3. ईशान कोण - वैमानिक देव बैठकर उत्तर द्वार श्रावक वर्ग बैठकर उत्तर द्वार श्राविका वर्ग बैठकर उत्तर द्वार 4. वायव्य कोण - व्यंतर देव । बैठकर पश्चिम द्वार भवनपति देव बैठकर पश्चिम द्वार ज्योतिष देव बैठकर पश्चिम द्वार प्रत्येक गढ़ जमीन से 2500 धनुष (सवा गाऊ) ऊँचा होता है एवं भींत (दीवार) 500 धनुष ऊँची और 33 धनुष 32 अंगुल लम्बी होती है। प्रथम गढ़ के चारों किनारों पर देवता मीठे जल की एक-एक बावड़ी (सरोवर) का निर्माण करते हैं। समवसरण से बाहर जाने हेतु एवं प्रवेश हेतु रत्नों के चार-चार दरवाजे होते हैं, तीन गढ़ों के कुल 12 द्वार जिन पर पद्मराग मणिमय तोरण होते हैं। प्रत्येक दरवाजे के पास सुवर्णकमल से सुशोभित बावड़ी होती है। एवं प्रत्येक गढ़ के दरवाजों पर देव-देवी द्वारपाल रूपेण खड़े रहते हैं। प्रत्येक द्वार पर धर्मचक्र होता है। प्रत्येक दिशा में एकएक योजन प्रमाण ऊँचाई वाला ध्वज होता है। जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए, क्योंकि विरक्त व्यक्ति संसार-बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता जाता है। - मरणसमाधि (296)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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