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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 73 किसने किया, यह जानने हेतु इन्द्र ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। उसने देखा कि यह प्रभु ने सहज रूप से कर दिया। तत्क्षण ही सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर के आगे नतमस्तक हो गया एवं प्रभु का बल जान गया कि शैशव काल में भी तीर्थंकर अतीव बलशाली होते हैं। अर्थात् जन्म के साथ ही वे अतुल बल के धारक होते हैं। द्वितीय घटना उस समय की है जब बालक वर्द्धमान आठ वर्ष के थे। एक बार वे साथियों के साथ गृहोद्यान (प्रमदवन) में आमलकी क्रीड़ा (आमलखेड) कर रहे थे। इसमें जो बालक दौड़कर वृक्ष पर चढकर सबसे पहले नीचे आ जाता था, वह विजयी होता था। प्रभु के साहस की परीक्षा लेने के लिए एक अभिमानी देव भयंकर विषधर सर्प का रूप धारण कर उसी वृक्ष से लिपट गया। फुकारते हुए विषैले नागराज को देखकर अन्य सभी बालक भयभीत हो गए, लेकिन वर्द्धमान अनवरत आगे बढ़ते रहे। सभी मित्रों ने उन्हें बहुत रोका लेकिन बालक वर्द्धमान ने बिना डरे और बिना झिझके उस सर्प को मारे बिना पकड़कर एक ओर रख दिया और विजयी बने। अन्य सभी बालक उनके वीरत्व, पराक्रम और बल को देखकर स्तब्ध रह गए। . बालक पुन: एकत्र हुए और खेल फिर प्रारम्भ हुआ। इस बार वे 'तिंदुषक' क्रीड़ा खेलने लगे। जिसमें किसी एक वृक्ष को अनुलक्ष कर सभी बालक दौड़ते थे, जो सर्वप्रथम वृक्ष को छू लेता था, वह विजयी होता था और जो पराजित होता, उसकी पीठ पर विजयी बालक आरूढ होता। वही देव इस बार किशोर का रूप धारण कर क्रीड़ा दल में सम्मिलित हो गया। वर्द्धमान से खेल में हार जाने पर नियमानुसार उसे वर्द्धमान को पीठ पर बैठाकर दौड़ना पड़ा। वह किशोर रूप देवता दौड़ता-दौड़ता बहुत आगे निकल गया। उसने विकराल-भयंकर सा पिशाच रूप बनाकर वर्द्धमान को डराना चाहा। लेकिन अमेय बल के धनी तीर्थंकर प्रभु ने उसकी पीठ पर ऐसा मुष्टिप्रहार किया कि उस देवता ने वर्द्धमान के बल शौर्य एवं पराक्रम का लोहा मान लिया। वह देव स्तुति कर अपने स्थान पर चला गया। इसी कारण से बालक वर्द्धमान को महावीर कहा जाने लगा। . कहने का सार यह है कि तीर्थंकर में अदम्य बल होता है। बल का अर्थ केवल शारीरिक बल नहीं अपितु मानसिक, चारित्रिक एवं आत्मिक बल भी है। तन बल के साथ-साथ तीर्थंकर भगवंतों के पास अतुल मनोबल होता है। दीक्षा ग्रहण पश्चात् जितने भी उपसर्ग वे सहते हैं, उनका आधार शारीरिक बल नहीं, अपूर्व आत्मबल होता है। बचपन से ही वे सौम्य प्रकृति के होते हैं, सहनशील-सहिष्णु होते हैं, मन को एकाग्र रखते हैं। चूंकि उनका परम लक्ष्य आत्मा का उद्धार है, वे अपनी आत्मा के गुणों को निखारतेनिखारते आत्मा में रमण करते हुए स्वयं के भीतर छिपे आत्मबल को खोजते हैं। यही आत्मबल उनके प्रभुत्व-लघुत्व का सार है। कहा भी गया है-शारीरिक बल से चारित्रिक बल एवं चारित्रिक बल से आत्मबल श्रेष्ठ है।
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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