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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 72 अरिष्टनेमि ने सोचा- यदि मैं छाती से, भुजा से तथा पैरों से श्रीकृष्ण को दबाऊंगा, तो न जाने उसका क्या हाल होगा । एतदर्थ ऐसा कुछ करूँ कि कृष्ण को कष्ट भी न हो एवं यह मेरे भुजाबल को भी जान पाए । तब उन्होंने परस्पर भुजा को झुकाने का ही युद्ध करने का प्रस्ताव दिया, जो श्रीकृष्ण ने हास्य-विनोद में स्वीकार किया किन्तु अरिष्टनेमि ने दो पल में सहज रूप से श्रीकृष्ण की भुजा झुका दी। परन्तु श्रीकृष्ण नेमिकुमार के भुजा स्तंभ को, जैसे जंगल का हाथी बड़े पहाड़ को नहीं झुका सकता, वैसे ही श्रीकृष्ण किञ्चित् मात्र भी अरिष्टनेमि की भुजा को नहीं झुका सके। तब से श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि को स्वयं से अधिक पराक्रमी, शक्तिसंपन्न मानने लगे।” प्रस्तुत घटनाचित्र तीर्थंकरों के महान् धैर्य, शौर्य एवं प्रबल पराक्रम को उजागर करता है। वासुदेव तो बलशाली होते ही हैं, किन्तु तीर्थंकर सर्व शक्तिमान होते हैं । विशेषावश्यक भाष्य में कहा है सोलस रायसहस्सा, सव्व बलेणं तु संकलनबद्धं । अंछंति वासुदेवं, अगडतडम्मि ठिय संतं ॥ घेतूण संकलं सो, वाम - हत्थेण अंछमाणाणं । भुंजिज्ज विलिंपिज्ज व महुमणं ते न चाएंति ॥ दो सोला बत्तीसा सव्व बलेणं तु संकलनिबद्धं । अछंति चक्कवट्टि अगडतडम्मि ठियं संतं ॥ अर्थात् - कुए के किनारे बैठे हुए वासुदेव का लोहे की शृंखलाओं से बांधकर यदि 16,000 राजा अपनी सेनाओं के साथ सम्पूर्ण शक्ति लगाकर खींचे, तथापि वासुदेव आनन्द पूर्वक बैठे हुए भोजन करते रहें, किंचितमात्र भी उस जगह से न हिले डुले अर्थात् वहाँ से चलायमान नहीं होते। ऐसे वासुदेव व चक्रवर्ती से भी अपरिमित बल तीर्थंकरों में होता है। शैशव काल से ही तीर्थंकरों के पास विश्ववंद्य बल होता है। तीर्थंकर वर्द्धमान के शैशव व बाल्यकाल की कतिपय रोचक घटनाएँ प्राप्त होती हैं। प्रथम घटना प्रभु के जन्म कल्याणक महोत्सव की है। जब सौधर्मेन्द्र प्रभु को गोद में लिये बैठा था एवं अन्य देव-देवियाँ अभिषेक कर रहे थे, तब सौधर्मेन्द्र ने सोचा कि शिशुरूपी प्रभु कितने छोटे हैं ? उनका शरीर कितना नाजुक व लघु है। वे अभिषेकों को किस प्रकार सहन कर रहे होंगे।" शिशु वर्द्धमान ने अवधिज्ञान से शक्रेन्द्र की इस शंका को जाना एवं उत्तर रूप में बैठे-बैठे ही पैर के एक अंगूठे से समस्त मेरु पर्वत को प्रकम्पित कर दिया। विशाल मेरुपर्वत को हिलाने का दुस्साहस स्त्री का आभूषण तो शील और लज्जा है। बाह्य आभूषण उसकी शोभा नहीं बढा सकते हैं। बृहत्कल्पभाष्य (4342) -
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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