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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 131 देव पुष्प बरसाते हैं, कई रुदन करते हैं। तीर्थंकर की शिष्य संपदा भी उदास होती है। फिर इन्द्र की आज्ञा से
अग्निकुमार देव चिताओं में अश्रुपूरित नेत्रों से अग्निकाय की विकुर्वणा करते हैं अर्थात् अग्नि की चिंगारी छोड़ते हैं। वायुकुमार देव शोकान्वित मन से वायुकाय की विकुर्वणा करते हैं अर्थात् उस अग्नि को प्रज्वलित करते हैं एवं देह को स्थापित करते है। भवनपति तथा वैमानिक देव विमनस्क मन से चिताओं में परिमाणमय अगर, तुरुष्क,
कपूर घी एवं शहद डालते हैं। . वायुकुमार देव (अग्नि संस्कार पूर्ण होने पर) चिताओं को क्षीरोदक से निर्वापित करते
हैं अर्थात् वर्षा कराते हैं।
तदनन्तर, शक्रेन्द्र तीर्थकर के ऊपर की दाहिनी दाढ़ लेता है। चमरेन्द्र नीचे की दाहिनी दाढ़ • लेता है। ईशानेन्द्र ऊपर की बाया दाढ़ लेता है एवं वैरोचनेन्द्र बली नीचे की बायी दाढ़ लेता है।
अन्य देव भी रत्नकरंडक (वज्रमय समुद्गक) में रखकर पूजन हेतु अस्थियाँ (हड्डियाँ) लेते हैं। ज्ञाताधर्मकथांग की वृत्ति में लिखा है कि देवतागण सुधर्म सभा (देवलोक) के चैत्य स्तम्भ में लटकते रत्नजड़ित डब्बियों में दाढ़ाओं में पधराते हैं एवं निरन्तर आराधना करते हैं तथा परमात्मा की आशातना न हो, इस हेतु से वहाँ काम-क्रीड़ा भी नहीं करते। उसी स्थान पर तीन रत्नमय विशाल स्तूपों का निर्माण होता है- तीर्थंकर की चिता पर, गणधरों की चिता पर, अन्य अणगारों की चिता पर। गणधर भगवन्तों के लिए दक्षिण दिशा में त्रिकोणी (त्रिभुजाकार) चिता और साधु भगवन्त हेतु पश्चिम दिशा में चौखुनी (वर्गाकार) चिता का निर्माण देवता करते हैं। उनकी क्रिया सामान्य देवतागण करते हैं। यह ध्येय होना चाहिए कि महावीर स्वामी का निर्वाण एकाकी हुआ, तो सर्वत्र एक स्तूप, चिता पालकी आदि समझनी चाहिए।
इस प्रकार क्रिया सम्पन्न करके इन्द्रादि देव नन्दीश्वर द्वीप पर जाकर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण महोत्सव मनाते हैं। तीर्थंकर ऋषभदेव के निर्वाण की मानवीय देन
___ वर्तमान अवसर्पिणी काल के ऋषभदेव जी प्रथम तीर्थंकर थे। जीवित-अवस्था में उन्होंने मानवजाति को पुरुषों की 72 एवं स्त्रियों की 64 कलाओं का परिज्ञान कराया। उनके निर्वाण के बाद भी मानवजाति को उनके निमित्त अमूल्य देन मिली।
जिसको भली प्रकार तैरना नहीं आता जैसे वह स्वयं डूबता है और साथ में अपने साथियों को भी ले डूबता है उसी प्रकार उलटे मार्ग पर चलता हुआ एक व्यक्ति भी कई को ले डूबता है।
- गच्छाचार-प्रकीर्णक (30)