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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 132 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में हेमचन्द्राचार्यजी ने लिखा है कि अष्टापद पर्वत के रक्षक देवताओं ने ऋषभदेव जी के अन्तिम समय को जानकर उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती को सूचना प्रदान की। जब तक भरत अष्टापद पर पहुँचे, ऋषभदेव जी शरीर का त्याग कर परमात्म-पद को पा चुके थे। प्रभु के निर्वाण को जानकर सम्राट् भरत शोक से मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। उस समय के लोग रुदन (रोने) की प्रवृत्ति से अनजान थे किन्तु शोकान्वित होने पर आँसू निकलना सहज भाव है। सम्राट भरत की मूर्च्छित स्थिति देख इन्द्र चिन्तित हो गए। उन्होंने तीव्र स्वर से कहा- “षट्खंडाधिपति भरत! रुदन करो। हे भरत। रुदन करो।” भरत चक्रवर्ती की मूर्छा दूर हुई एवं उनके नेत्रकमलों से अश्रुधारा फूट पड़ी। जब आँसुओं के प्रबल प्रवाह में शोक बह गया, तब इन्द्र ने प्रभु की शारीरिक अन्तिम क्रिया करने का आदेश दिया। देह का दाह-संस्कार हुआ। उसी दिवस से मानवों में अग्नि-संस्कार की क्रिया प्रारम्भ हुई एवं रुदन की प्रवृत्ति भी उसी दिन से शुरू हुई। तीर्थंकर महावीर के निर्वाण की मानवीय देन जब भगवान महावीर के परिनिर्वाण का क्षण निकट आया, तो शक्रेन्द्र का आसन प्रकम्पित हुआ। उसने प्रभु से नम्र निवेदन किया- “भते ! आपके गर्भ, दीक्षा, जन्म एवं केवलज्ञान में हस्तसेत्तरा नक्षत्र था। इस समय उसमें भस्मग्रह संक्रांत होने वाला है। वह ग्रह आपके जन्म नक्षत्र में आकर दो हजार वर्षों तक आपके जिनशासन के प्रभाव में अवरोधक होगा। एतदर्थ जब तक वह आपके जन्म नक्षत्र में संक्रमण कर रहा है, आप अपना आयुष्य बल स्थित रखें।" प्रभु ने विनयपूर्वक कहा- “शक्र ! आयुष्य कभी बढ़ाया नहीं जा सकता। ऐसा न कभी हुआ है, न कभी होगा। दुषमा काल के प्रभाव से जिनशासन में जो बाधा होती है, वह तो होगी ही।" तत्पश्चात् प्रभु ने 16 प्रहर अर्थात् 48 घंटों की अन्तिम देशना दी। उस देशना में 55 अध्ययन पुण्यफलविपाक के तथा 55 अध्ययन पापफल विपाक के कहे। छत्तीस अध्ययन अपृष्टव्याकरण के कहे एवं सैंतीसवाँ' 'प्रधान' अध्ययन कहते-कहते प्रभु का निर्वाण हो गया। ___जिस रात्रि को भगवान् का परिनिर्वाण हुआ, उस रात्रि को 9 मल्ल, 9 लिच्छवी राजा पौषध व्रत में थे। उन्होंने कहा- आज संसार से भाव उद्योत उठ गया है, अतः हम द्रव्य उद्योत करेंगे। जीव अपने ही कर्मों के कारण नरक यावत् देवयोनि में उत्पन्न होते हैं। - अन्तकृदशांग (6/15/18)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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