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________________ 3. 5. 6. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 151 - भूषणाय तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ । तुभ्यं नम: क्षितितलामल -: तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-शोषणाय ॥ भाषा के सौन्दर्य से युक्त इस स्तोत्र पर ' कल्याण मन्दिर' का भी यत्किंचित् प्रभाव दिखा है। आचार्य बप्पभट्ट सूरि द्वारा तीर्थंकर स्तुति - विक्रम की आठवीं शती में हुए आचार्य बप्पभट्ट सूरि जी ने 96 पद्यों व 24 स्तुति कदम्बकों द्वारा क्रमागत जिनेश्वरों की स्तुति की जो 'चतुर्विंशतिका' के नाम से प्रसिद्ध हुई । वीर जिनेश्वर की स्तुति हेतु 11 पद्यों में 'वीरस्तव' की रचना भी उन्होंने ही की । शब्दालंकारों के आकर्षक उपयोग द्वारा स्तुतियाँ उस समय अत्यन्त प्रसिद्ध रही । शोभनमुनि द्वारा तीर्थंकर स्तुति - तिलकमंजरी के रचयिता कवि धनपाल के भ्राता के रूप में प्रसिद्ध शोभन मुनि ने गोचरी लाते - लाते 96 पद्यों में 24 तीर्थंकरों की क्रमागत रच दी। इसे ‘चतुर्विंशतिजिनस्तुति' के रूप में जाना गया। डा. हर्मन जेकोबी ने इसका जर्मन भाषा में भी अनुवाद किया । आचार्य हेमचन्द्र द्वारा तीर्थंकर स्तुति पाश्चात्य विद्वान् जिन्हें Ocean of Knowledge कहते हैं, ऐसे कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य जी ने अपनी अनुपम रचनाओं से भक्तिकाव्य को नया आयाम दिया। वीतराग के गुणों की स्तुति स्तवना करने वलो 20 प्रकाशों में 'वीतराग स्तोत्र', प्रभु वीर को समर्पित दो द्वात्रिंशिकाएँ परिशिष्ट पर्व में मंगल रूप में भगवान् महावीर का चार पद्यों वाला 'वीरजिनस्तोत्र' आदि उनके भक्ति रस से परिलक्षित कराते हैं। चवालीस श्लोक निबद्ध 'महादेव स्तोत्र' भी समन्वयात्मक भक्ति का परिचायक है, जिसमें ब्रह्मादि तथा तीर्थंकरों की सुन्दरतम लालित्य पूर्ण व्याख्या की है । त्रिषष्टिश्लाकापुरुष के विशालकाय प्रबन्ध में भी प्रारम्भ में 24 तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। आज भी वह स्तुति 'सकलार्हत् स्तोत्र' के रूप में प्रख्यात है। उपाध्याय यशोविजय द्वारा तीर्थंकर स्तुति 17वीं शती के ज्योतिर्धर महोपाध्याय यशोविजय जी अथाह ज्ञानी थे। उनका आत्मज्ञान प्रभुभक्ति के भावों में दृष्टिगोचर होता है । समन्वयात्मक दृष्टि से लिखा गया 'परमात्मपञ्चविंशतिका' में अरिहन्त व सिद्धों के विशुद्ध स्वरूप का वर्णन किया गया है। 'जिनमें निरन्तर विज्ञान, आनन्द और ब्रह्म प्रतिष्ठित हैं, ऐसे शुद्ध-बुद्ध स्वभाव वाले परमात्मा को नमन' । यशोविजय जी विरचित 'सिद्धसहस्रनामछन्द' अति सुन्दर है । - दुष्कर ब्रह्मचर्य की साधना के लिए सतत सावधान तथा मनसा वाचा कायेन ब्रह्मचारियों को देव, दानव गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर सभी नमस्कार करते हैं। - उत्तराध्ययन (16/16) -
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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