SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 56 1. 2. क्षीरधात्री - दूध पिलाने वाली धायमाता। मज्जनधात्री - स्नान कराने वाली धायमाता। 3. मंडनधात्री - वस्त्राभूषित करने वाली धायमाता। अंकधात्री - गोद में लेने वाली धायमाता। 5. क्रीड़ाधात्री - खेल खिलाने वाली धायमाता। तीर्थंकर प्रभु की बचपन से ही उदार एवं अहिंसक मनोवृत्ति होती है। वे निर्लिप्त भाव से अपने कक्ष में रहते हैं। प्रभु कभी पाठशाला या लेखशाला नहीं जाते क्योंकि वे जन्म से ही प्रत्येक कला में कुशल होते हैं। किन्तु महावीर स्वामी को उनके माता-पिता लेखशाला में लेकर गए थे। इंद्र ने यह जाना, तो वृद्ध का रूप बनाकर कुछ क्लिष्ट श्लोकों के अर्थ पूछने आचार्य (गुरु) के पास आए, किन्तु वे अर्थ बताने में अक्षम रहे। बालक वर्द्धमान ने वृद्ध रूपी इन्द्र को श्लोक के संतोषजनक अर्थ बताए। यह सुन माता-पिता गुर्वादि सभी स्तब्ध रह गए एवं जाना कि वर्धमान प्रबुद्ध ज्ञानी है एवं लेखशाला में जाने की उन्हें जरूरत नहीं है। वह अर्थ जैनेंद्र व्याकरण बना। जब अरिष्टनेमि आठ वर्ष के हुए थे, तो उन्हें अवसरवश अपने पराक्रम का प्रदर्शन करना पड़ा था। तीर्थंकर वर्द्धमान को भी बाल्यकाल में वीरता का प्रदर्शन करना पड़ा था, जिससे उनका लोकविख्यात नाम ‘महावीर' पड़ा। इन प्रसंगों की चर्चा हम तीर्थंकरों का अतुल बल नामक अध्याय में करेंगे। शैशव काल में वे अंगूठे के मनोज्ञ पौष्टिक रस को ग्रहण करते हैं। कहा भी है- “आहारमंगुलीए ठवंति देवा मणुन्नं तु।" जब तीर्थंकर बड़े होते हैं, तब वे आहार करते हैं। भद्रेश्वर सूरि कृत कहावली समइक्कत बालभावा य सेस जिणा अग्गिपक्कमेवाहारं भुजंति। उसभसामी उण पवज्जं अपडिवन्नो देवोवणीय देवकुरु - उत्तरकुरु कप्परुक्खामय फलाहारं खीरोदहिजलं च उप जति॥ इस प्रकार लिखा है। अर्थात् प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, जब बड़े हुए, तब देवों द्वारा प्रदत्त देवकुरु एवं उत्तरकुरु क्षेत्र के कल्पवृक्षों के फलों का आहार तथा क्षीर सागर के जल का ही पान करते थे। अन्य तीर्थंकर शैशव के बाद बड़े होने पर (गृहस्थावस्था) पक्वाहार करते थे। जो मार्ग में चलने से थक गये हैं, चोर, हिंस्रपशु, राजा और व्यथित नदी की रुकावट, मरी-प्लेग आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं, उनकी सार-सम्हाल तथा रक्षा करना वैयावृत्य है। - मूलाचार (5/218)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy