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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 90
के कानों में जो गर्म शीशा उँडेलवाया था, यह उसी का फल था।
वहाँ से विहार कर प्रभु मध्यम पावा पधारे, जहाँ खरक वैद्य एवं सिद्धार्थ श्रेष्ठी ने शलाकाओं को देखा और निकालने का विचार किया। औषधि आदि सामग्री ले वे उद्यान में पहुंचे। वहाँ भगवान् ध्यानस्थ थे। उन्होंने प्रभु के तैलमर्दन किया व संडासी से शलाकाएँ निकाली। कानों से रक्त की धाराएँ प्रवाहित हो गईं। कहा जाता है कि उस अतीव भयंकर वेदना से प्रभु के मुख से एक चीत्कार निकल गई जिससे समस्त उद्यान व देवकुल संभ्रमित हो गया। वैद्य ने शीघ्र ही संरोहिणी औषधि से रक्त को बंद किया। प्रभु को नमन व क्षमायाचना करके वैद्य और श्रेष्ठी स्वस्थान पर चले गए। किन्तु महावीर इस भीषण कष्ट को भी सह गए व साधना में लीन रहे।
आवश्यक चूर्णि में लिखा है - "अहवा जहन्नगाण उवरि कडपूयणासीतं मज्झियाण कालचक्कं, उवकोसग्गण उवरिं सल्लुद्धरणं॥” अर्थात् प्रभु वीर को हुए उपसर्गों को जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट उपसर्गों में विभक्त करें, तो जघन्य उपसर्गों में कटपूतना का उपसर्ग महान् था। मध्यम उपसर्गों में संगम का कालचक्र विशिष्ट था और उत्कृष्ट उपसर्गों में ग्वाले का उपसर्ग उत्कृष्ट था। श्रमण महावीर की तपस्या
नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु का मन्तव्य है कि अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा छद्मस्थावस्था में श्रमण महावीर का तप कर्म सर्वाधिक उग्र था। जैसे समुद्रों में स्वयंभूरमण श्रेष्ठ है, रसों में इक्षुरस श्रेष्ठ है, उसी प्रकार तप-उपधान में मुनि वर्धमान जयवन्त हैं।
श्रमण महावीर ने छद्मस्थ काल में जो जलरहित (अपानक) तप किये वे संक्षिप्त रूप में इस प्रकार हैंछहमासी तप
पाँच दिन न्यून छहमासी चातुर्मासिक
. 2 त्रैमासिक सार्धद्विमासिक
द्विमासिक सार्धमासिक
___12 मासिक पाक्षिक
भद्र प्रतिमा (दो दिन) 1 महाभद्रप्रतिमा
__1 सर्वतोभद्रप्रतिमा (दस दिन) 229 छट्ठभक्त
___ 12 अष्टभक्त 349 दिन पारणा
1 दिन दीक्षा का
लोभ-संयम रूप निर्लोभता की भावना से भावित अन्तरात्मा अपने हाथ, पैर, आँख और मुँह पर संयमशील बनकर धर्मवीर तथा सत्यता और सरलता से सम्पन्न हो जाता है।
- प्रश्नव्याकरण (2/2)