SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 119 साकारत्व - वस्तु स्वरूप को साकार रूप में प्रस्तुत करने वाली हो तथा वर्ण-पद वाक्य अलग-अलग हों। सत्त्वपरिगृहीतत्व - भाषा का सत्त्वप्रधान, ओजस्वी व प्रभावशाली होना जिससे स्वयमेव वह साहसयुक्त हो जाती है। अपरिखेदितत्व - स्व पर के लिए खेदरहित होना एवं उपदेश देते हुए थकावट का अनुभव न करना। 35. अव्युच्छेदित्व - विवक्षित अर्थ की सम्यक् सिद्धि होने तक बिना व्यवधान के उसका अविच्छिन्न अर्थबोधक व्याख्यान करना। . इस प्रकार तीर्थंकर वाणी 35 सत्यवचनातिशय से युक्त होते हैं। पहले सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से है एवं शेष अतिशय अर्थ का अपेक्षा से हैं। तीर्थंकरों की पदवियाँ . शास्त्रों में वासुदेव प्रतिवासुदेव, कुलकर इत्यादि 23 पदवियाँ गिनाई हैं। उन तेईस पदवियों में से तीर्थंकर ज्यादा से ज्यादा निम्न 6 पदवियाँ ही प्राप्त कर सकते हैं। 1. सम्यक् दृष्टि - सम्यक्त्व दर्शन जिसे प्राप्त है। 2. मांडलिक राजा - एक मंडल का अधिपति राजा। 3. चक्रवर्ती - षट्खण्डों को जीतने वाला। 4. साधु - 27 महाव्रतों से युक्त सहायक गुरु श्रमण। 5. केवली - केवल ज्ञान-दर्शन से युक्त चरमशरीरी। 6. तीर्थंकर - तीर्थ की संस्थापना करने वाले। . इन छह में से सम्यग्दृष्टि साधु, केवली एवं तीर्थंकर ये 4 तो प्रत्येक तीर्थंकर को प्राप्त होती हैं। स्पष्टतया वे वासुदेव, प्रतिवासुदेव नहीं बन सकते क्योंकि वे मोक्षगामी नहीं होते। वे गणधर भी नहीं बन सकते क्योंकि वे किसी से दीक्षा नहीं लेते। इत्यादि अन्य पदवियों के लिए भी समझना। तीर्थंकरों की आत्मा तो तेरहवें गुणस्थानक की अनुमोदनीय पदवी पर स्थित होती है। शास्त्र कहते है इंदिय-विसय-कसाए, परिसह वेयणाए उवसग्गे। ए ए अरिणो हंता, तित्थयरा येण वुच्चंति॥ पाँचों इन्द्रियाँ, पाँचों इन्द्रियों के 23 विषय एवं 252 विकार, 64 कषाय, शारीरिक, मानसिक एवं उभय रूप त्रिविध उपसर्ग, परिषह रूपी अन्तरंग शत्रुओं को जिसने मार दिया, ऐसी पदवी तीर्थंकर की ही होती है।
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy