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________________ 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 27. 28. 29. 30. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 118 अभिजातत्व प्रतिपाद्य विषय की भूमिकानुसार विषय और वक्ता का होना जो वक्ता की कुलीनता - शालीनता दर्शाए । अतिस्निग्ध - मधुरत्व - अमृत से भी अधिक, स्नेह एवं माधुर्य से परिपूर्ण वाणी का श्रोता के लिए परम सुखकारी होना । अमरमर्मवेधित्व - मर्मवेधी न हो अर्थात् किसी के मर्म गुप्त रहस्य को प्रकाशित करने वाली न हो । 31. 26. उत्पादिताविच्छिन्नकुतूहलत्व - श्रोताओं के हृदय में वक्ता विषयक निरंतर कुतूहल (आश्चर्य) बने रहना । अद्भुतत्व - अद्भुत अर्थरचना वाली होना एवं वचनों का अश्रुतपूर्व होने के कारण श्रोताओं में हर्षरूप विस्मय बने रहना । अनतिविलम्बितत्व - विलम्बरहित होना अर्थात् धीरे नहीं, तेज नहीं किन्तु धाराप्रवाह उपदेश देना । - अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व - धर्मार्थरूप पुरुषार्थ की पुष्टि करने वाली हो व मोक्षरूप अर्थ एवं श्रुतचारित्ररूप धर्म से सम्बद्ध होना । उदारत्व अभिधेय अर्थ की गंभीरता होना व तुच्छतारहित उदारता से युक्त होना । परनिन्दात्मोत्कर्ष विप्रयुक्तत्व - दूसरों की निन्दा व आत्मप्रशंसा से रहित होना । वे पाप की निंदा करते हैं, पापी की नहीं । श्रोताओं द्वारा श्लाघनीय व प्रशंसनीय होना क्योंकि वचन उपर्युक्त गुण - उपगतश्लाघत्व से युक्त होते हैं । अनपनीतत्व - कारक, काल, वचन, लिंग आदि व्याकरण के विपर्यास रूप दोषों का न होना । - विभ्रम-विक्षेपकिलि-किंचितादि - भ्रान्ति होना विभ्रम है, दिल पर न लगना विक्षेप है, रोषभय-लोभ होना किलिकिंचित है। प्रभु की वाणी का ऐसा कोई प्रभाव नहीं होता । विचित्रत्व - वर्णनीय वस्तुओं की विविधता होने के कारण तथा विचित्र अर्थ वाली से वाणी में विचित्रता होना । आहित विशेषत्व - दूसरे पुरुषों की अपेक्षा वचनों में विशेषता होने से श्रोताओं को विशिष्ट बुद्धि प्राप्त होना । जो व्यक्ति हिताहारी है, मिताहारी है और अल्पाहारी है, उसे किसी वैद्य से चिकित्सा करवाने की जरूरत नहीं है, वह स्वयं ही स्वयं का वैद्य है, चिकित्सक है। ओपनियुक्ति (578)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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