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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 117
3. उपचारोपेतत्व - रे, 'तू' इत्यादि तुच्छ ग्राम्य दोष एवं ग्रामीणता के अन्य हल्के शब्दादि
से रहित होना। गंभीर शब्दता - मेघगर्जना के समान गंभीर आवाज (वाणी) व शब्दत्व का होना। अनुनादित्व - अनुनाद अर्थात् प्रतिध्वनि युक्त होना एवं शब्दों का यथार्थ यथोचित स्पष्ट उच्चारण होना। दक्षिणत्व - भाषा का वक्रता रहित सरल स्पष्ट होना एवं दाक्षिण्य भाषा का उपयोग करना। उपनीतरागत्व - वाणी का मालकोश (प्रधान राग), मालव, केशिकादि ग्राम रागों से युक्त
होना जो श्रोता का तल्लीन बना दे। 8. . महार्थत्व - अभिधेय अर्थ में महानता गम्भीरता एवं परिपुष्टता का होना, थोड़े शब्दों में
अधिक अर्थ कहना। अव्याहतपौर्वापर्यत्व - वचनों में पूर्वापर विरोध न होना। जैसे अहिंसा परमो धर्म कहकर यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः ऐसे वचन न कहना। शिष्टत्व - सिलसिलेवार प्रवचन करना, अभिमत सिद्धांतों का कथन करना व वक्ता की
शिष्टता सूचित हो, ऐसा अर्थ कहना। 11. असन्दिग्धत्व - अभिमत वस्तु का इस प्रकार स्पष्टतापूर्वक कथन करना कि श्रोता के दिल
में किंचित् मात्र भी संशय न हो। अपहृतान्योत्तरत्व - वचनों का दूषण (दोष) रहित होना और इसलिए शंका-समाधान का
मौका न आने देना। __हृदयग्राहित्व - श्रोताओं को एकाग्र, आकृष्ट एवं आनन्दित करे, ऐसे कठिन विषय को
भी सहज रूप से समझाना। देशकालात्यतीतत्व - बड़ी विचक्षणता से देश काल के अनुरूप, अनुसार एवं अवसरोचित वचन कहना। तत्त्वानुरूपत्व - विवक्षित वस्तु का जो स्वरूप (विषय) हो उसी के अनुरूप उसका सार्थक
सम्बद्ध व्याख्यान करना। 16. अप्रकीणप्रसृतत्व - प्रकृत वस्तु का उचित विस्तार करना। असम्बद्ध अर्थ न कहना तथा
सम्बद्ध अर्थ का भी अतिविस्तार न करना। 17. अन्योन्यप्रगृहीतत्व - पद और वाक्यों का वाक्यानुसारी सापेक्ष होना एवं निस्सार (सारहीन)
पद न कहना।
जो समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, उसे पापकर्म का बन्ध नहीं होता है।
- बृहत्कल्पभाष्य (4586)