________________
तीर्थंकर : एक अनुशीलन : 79
जाती है। उस पालकी में भगवान पूर्व सम्मुख सिंहासन पर बैठे। भगवान की दाहिनी ओर कुल में वरिष्ठ कुलमहत्तरा साड़ी लेकर बैठती है तथा बायीं ओर धायमाता दीक्षा के उपकरण लेकर बैठती है। ईशानकोण में एक कलशधारी स्त्री पीछे छत्रधारी स्त्री तथा अग्निकोण में पंखा झलती हुई स्त्री खड़ी रहती है। ___शक्रेन्द्र पालकी को दाहिनी ओर की आगे की बाँह से उठाता है। ईशानेन्द्र बायीं ओर की आगे की बाँह से उठाता है। चमरेन्द्र दाहिनी ओर की पिछली बाँह उठाता है तथा बलीन्द्र बायीं ओर की पिछली बाँह उठाता है। अन्य देवों के इन्द्रों की तथा हजार सेवक मनुष्यों की जहाँ नजर गयी, वहाँ से उठायी। इस शिविका को पहले मनुष्य उठाते हैं। फिर सुरेन्द्र, असुरेन्द्र तथा नागेन्द्र। आचारांग अनुसार शिविका (पालकी) को सबसे पहले मनुष्य हर्षोल्लास से उठाते हैं। सभी में स्पर्धा होती है कि ऐसा पुण्यदायक कार्य मैं करूंगा और तत्पश्चात् पूर्व दिशा से वैमानिक देव, दक्षिण दिशा से असुरकुमार देव, पश्चिम से गरुड़कुमार देव और उत्तर दिशा से नागकुमार देव उठाते हैं। शिविका के आगे क्रम से - स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंदावर्त्त, वर्धमानसंपुट, भद्रासन, कलश, मत्स्य
और दर्पण - ये अष्ट मंगल होते हैं। तत्पश्चात् 108 हाथी, 108 घोड़े, 108 प्रधान पुरुष, चार प्रकार की सेना, हजार ध्वजाओं से युक्त महेन्द्र ध्वज (इन्द्र ध्वज) आदि क्रम से चलते हैं। अन्य देव आकाश में देवदुंदुभि बजाते हैं, नृत्य करते हैं।
___फिर विशाल जनमेदिनी से युक्त शोभा यात्रा (जुलूस) निकलती है, एवं पालकी को नगर से वन की ओर ले जाया जाता है। वन के एक वृक्ष के नीचे पालकी रखवाई जाती है। तीर्थंकर पालकी से उतरते ही अपने सर्व वस्त्र, आभूषण आदि आभरण उतारकर कुल महत्तरा को देते हैं। जिन्हें कुलमहत्तरा साड़ी में रखती है। प्रभु अपने मस्तक को चार भाग में बाँटते हैं। एक बार में एक मुट्ठी से एक भाग के बाल निकालते हैं। पाँचवीं मुट्ठी से दाढ़ी के बाल निकालते हैं। इस प्रकार वे पंचमुष्टि लोच करते हैं। शक्रेन्द्र जानुपाद रहकर उन केशों को रत्नमय थाल में ग्रहण करता है एवं बाद में उन केशों को क्षीर समुद्र में विसर्जित कर देता है। सौधर्मेन्द्र ही प्रभु को एक देवदूष्य वस्त्र प्रदान करता है, जिसे जीताचार समझकर तीर्थंकर अपने वामस्कंध पर धारण करते हैं।
तत्पश्चात् सिद्धों को नमस्कार करके सामायिक चारित्र स्वीकार करते हैं। हरिभद्रीयावश्यक में कहा है
काऊण णमुक्कारं सिद्धाणमभिग्गहं तु से गिण्हे। सव्वं मे अकरणिज्जं पाव ति चरित्तमारूढो।
अभिमानी अपने अहंकार में दूसरों को सदैव परछाईवत् तुच्छ मानता है।
- सूत्रकृताङ्ग (1/13/18)