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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 878
पाते, ऐसा ही उनका कल्प होता है।
तीर्थंकरों के दान से प्रेरित होकर उनके माता-पिता या अनुक्रम से ज्येष्ठ भ्राता नगर में 3 दानशालाएँ खुलवाते हैं- अन्नपान दान के लिए, वस्त्र दान के लिए, आभूषण दान के लिए । उद्बोधन या दान पहले क्या?
प्रश्न यह उपस्थित होता है कि लौकांतिक देवों द्वारा उद्बोधन पहले होता है या सांवत्सरिक दान? आवश्यक निर्युक्ति एवं विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रंथों में तीर्थंकर ऋषभ के चरित्र के वर्णन से पहले संबोधन एवं उसके बाद दान की चर्चा आई है। उन्हीं ग्रन्थों में तीर्थंकर महावीर के वर्णन में सावत्सरिक दान के पश्चात् संबोधन का उल्लेख है। जैन वाङ्मय की यत्र-तत्र बिखरी सामग्री में किसी तीर्थंकर के लिए कुछ पहले लिखा है एवं किसी तीर्थंकर के लिए कुछ और। याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य हरिभद्र सूरि जी ने आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति में इसका समाधान करते हुए लिखा है किन सर्वतीर्थकराणामयं नियमो यदुत, संबोधनोत्तरकालभाविनी महादानप्रवृत्तिरिति अधिकृत-ग्रन्थोपन्यासान्यथानुपपत्तेः.....
अर्थात् सभी तीर्थंकरों के लिए इस प्रकार का कोई नियम नहीं है कि सम्बोधन के पश्चात् ही दान की प्रवृत्ति हो। यदि इस प्रकार का कोई सर्वव्यापक नियम होता तो आवश्यक - 5-नियुक्तिकारभाष्यकार इस प्रकार वर्णन नहीं करते।
अभिनिष्क्रमण महोत्सव
साथ
तीर्थंकर के दीक्षा के अभिप्राय को जानकर देव - देवियाँ अपनी ऋद्धि और समृद्धि आते हैं। अपनी वैक्रिय शक्ति के द्वारा वे एक स्वर्ण सिंहासन की रचना करते हैं एवं तीर्थंकर को पूर्वाभिमुख बैठाते हैं। तत्पश्चात् तीर्थंकर की शतपाक एवं सहस्रपाक तेल की मालिश की जाती है। स्वच्छ जल से अभिषेक किया जाता है। गंधकाषाय वस्त्र से शरीर को पोंछा जाता है। गोशीर्ष चन्दन व बावना चंदन से लेप किया जाता है। अल्पभार वाले बहुमूल्य वस्त्र पहनाए जाते हैं तथा मुकुट मुक्ताहार, कंठसूत्र, केयूर आदि आभूषणों से प्रभु को सुसज्जित किया जाता है।
प्रभु का परिवार एक ऊँची मणिकनक रचित पालकी (शिविका) का निर्माण करवाता है । देवतागण भी ऐसी ही एक शिविका रचते हैं जो दिव्यानुभाव से परिवारकृत पालकी में समाहित हो
यह आत्मा अनेक बार उच्च गोत्र में जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में। इसमें किसी प्रकार की विशेषता या हीनता नहीं है। अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त ।
आचाराङ्ग (1/2/3/1)