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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 28 77 की ओर अभिमुख होते हैं एवं सूर्योदय से सायंकालीन भोजन पर्यंत दान देते रहते हैं। प्रभु की सहायता हेतु विविध देव प्रभु की सहायता करते हैं। जैसे 1. ज्योतिष देव सम्पूर्ण भरत क्षेत्र (ऐरावत क्षेत्र/महाविदेह क्षेत्र) में वर्षीदान की उद्घोषणा करते हैं। 2. इन्द्र की आज्ञा से वैश्रमण देव माया से आठ समय में स्वर्ण मुद्राएँ बनाकर तीर्थंकर के घर में भरता है। 3. भवनपति देव दूर देशों के भव्य मनुष्यों को उठा कर लाते हैं। 4. सौधर्मेन्द्र ऐसी दिव्य शक्ति प्रदान करते हैं जिससे तीर्थंकर प्रभु दान देते हुए थके नहीं। 5. ईशानेन्द्र रत्नजड़ित सुवर्ण छड़ी लेकर प्रभु के पास खड़े रहता है और नसीब के अनुसार याचक से याचना करवाता है तथा सामान्य देवों को दान लेने से रोकता है। 6. चमरेन्द्र व बलीन्द्र प्रभु की मुट्ठी में याचक के नसीब अनुसार कम-ज्यादा करते रहते हैं, अर्थात् प्रभु की मुट्ठी में कम हो, तो ज्यादा एवं ज्यादा हो तो कम कर देते 7. वाण व्यंतर देव मनुष्यों को वापिस रख कर आते हैं तथा उनके परिवार को व्यक्ति की पहचान कराते हैं, क्योंकि वह व्यक्ति इतना संपन्न बन जाता है कि परिवार उसे .. पहचानं ही नहीं पाता। एक सुवर्णमुद्रा 30 रत्ती की होती है। बारह सौ (1200) स्वर्ण मोहरों का एक मण होता है। एक दिन में तीर्थंकर प्रभु 900 मन (एक करोड़ आठ लाख सुवर्णमुद्राएँ) दान में देते हैं। चालीस मण से एक गाड़ी भरी जा सकती है अर्थात् एक दिन में दिए वर्षीदान से 225 गाड़े भरे जा सकते हैं। इस हिसाब से एक वर्ष में वे 32 लाख 40 हजार मण (यानी 3 अरब, 88 करोड़, 80 लाख सुवर्ण मोहर) दान में दी जाती हैं। प्रत्येक मोहर पर तीर्थंकर का नाम, माता-पिता का नाम एवं नगरी का नाम लिखा होता है। दान के सुप्रभाव से 12 वर्षों तक 6 खंडों में शान्ति रहती है। भव्य जीवों का दारिद्र्य समाप्त हो जाता है, वे सम्पन्न यश-कीर्ति के स्वामी बन जाते हैं। मंद बुद्धि वाला विद्वान् बन जाता है, दुःखी के सभी दुःखों का अन्त हो जाता है 12 वर्षों तक भंडार भरपूर रहता है एवं रोगी भी 10 सालों तक नीरोग व स्वस्थ रहता है। किन्तु अभव्य जीव चाहकर भी वर्षीदान ग्रहण नहीं कर यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धन, धान्य, वस्त्र आदि सब यहीं छोड़ जाता है। कोई उसे शरण नहीं दे पाता। वह केवल सुखद या दुखद किये कर्मों को साथ लेकर परभव में जाता है। - उत्तराध्ययन (13/24)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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