________________
तीर्थंकर : एक अनुशीलन 876
7. शुक्राभ विमान में रहा हुआ अव्याबाध देव ।
8. सुप्रतिष्ठाभ विमान में रहा हुआ अग्नि ( आग्नेय देव | 9. रिष्टाभ विमान में रहा हुआ अरिष्ट देव |
हालांकि तीर्थंकर स्वयं-संबुद्ध होते हैं अर्थात् उन्हें किसी के प्रतिबोध की आवश्यकता नहीं पड़ती लेकिन अनादिकाल से ही ऐसा पारम्परिक जीत (लोक) व्यवहार के कारण नवलोकान्तिक देव प्रभु से प्रव्रज्या ग्रहण करने की विनती करते हैं। वे कहते हैं- हे प्रभो ! आप मानव वंश के वृषभ अर्थात् नव बीजारोपण करने वाली परम पवित्रात्मा हैं । कृपया दीक्षा ग्रहण कर तिर्यग्लोक के जीवों को नई दिशा प्रदान करें। धर्म - तीर्थ का प्रवर्तन करें । इत्यादि कहकर, विनती कर वे अपने विमान में वापिस चले जाते हैं।
तीर्थंकरों का वर्षीदान
दीक्षा के एक वर्ष पूर्व से तीर्थंकर प्रभु एक वर्ष तक निरंतर दान देते हैं जिसे वर्षीदान, वार्षिक दान एवं सांवत्सरिक दान भी कहा जाता है। जो सुवर्ण धरती में गड़ा होता है, वह प्रभु अपने गोत्रियों को दान स्वरूप बाँटते हैं। उसके बाद शहर में उद्घोषणा की जाती है कि जिसे जो भी चाहिए हो, वह भगवान से मांग सकता है। कुमार तीर्थंकर सभी को दान देते हैं।
दान की समस्त राशि - द्रव्य की व्यवस्था इन्द्राज्ञा से वैश्रमण देव करता है। औचित्य पालन कर प्रभु परिवार की संपत्ति नहीं देते हैं क्योंकि उस पर तो परिवार का अधिकार होता है और दीक्षा तो केवल तीर्थंकर परमात्मा को ही लेनी होती है । व्यन्तर जाति के नौकर समान तिर्यग्जृंभक (आभियोगिक) देवता गुप्त स्थानों से, जिनके मालिक और गौत्री आदि नष्ट हो चुके हैं, ऐसे धन को एकत्र करके भण्डार में भरते हैं।
तीर्थंकर परमात्मा के सर्वोत्कृष्ट पुण्य के कारण वे देवता द्वारा प्रदत्त विपुल द्रव्य भण्डार के स्वामी बनते हैं किन्तु सारी सम्पत्ति वे जनकल्याण हेतु समर्पित कर देते हैं । परमात्मा के अनुरागवश पारिवारिक जन भी उनका सहयोग करते हैं। जैसे महावीर स्वामी जी के वर्षीदान के समय में उनके भाई नन्दीवर्धन ने भी नगर में भोजनशाला, वस्त्रशाला आदि निर्माण कर मानवसेवा की थी । तीर्थंकर परमात्मा द्वारा दिया गया वार्षिक धन बहुत विशेष होता है।
सर्वप्रथम देवाधिगण नगरी के बाहर दान का मंडप विशाल रूप से रचते हैं, जिसके मध्य में स्वर्ण सिंहासन स्थापित किया जाता है। सूर्योदय होने पर तीर्थंकर प्रभु वहाँ आकर पूर्व दिशा
जैसे बंदर क्षणभर भी शान्त होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन भी संकल्प-विकल्प से क्षणभर के लिए भी शांत नहीं हो सकता।
भक्तपरिज्ञा (84)
-