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दीक्षा (निष्क्रमण) कल्याणक
तीर्थंकर प्रभु का परम उद्देश्य स्व-कल्याणं तथा पर-कल्याण करने का होता है। इसी हेतु से उन्हें सभी सांसारिक बन्धन चक्रव्यूह के समान असार लगते हैं। इसीलिए वे वैराग्य पाकर भागवती दीक्षा ग्रहण कर संसार को त्याग देते हैं। संसार का त्याग अर्थात् बन्धनों का त्याग, राजवैभव, सुख-सम्पदा का त्याग।
तीर्थंकरों का प्रमुख सन्देश अहिंसा है। दीक्षा ग्रहण करते ही वे तीनों लोकों के भव्याभव्य सभी जीव-तिर्यंच, मनुष्य, देवता, नारकी, सभी को अभयदान देते हैं। मतलब वे मन-वचन-काया से किसी जीव की उपेक्षा हिंसा नहीं करते।
दीक्षा कल्याणक को महा-अभिनिष्क्रमण महोत्सव भी कहते हैं। दीक्षा लेने से पूर्व लोकान्तिक देव उन्हें उद्बोधित करते हैं तथा एक वर्ष तक प्रभु सतत दान देते हैं। लोकान्तिक देवों द्वारा उद्बोधन
ब्रह्म देवलोक के अन्त में 9 लोकान्तिक देव रहते हैं। इन देवों की आत्मा बहुत निर्मल एवं पवित्र होती है। जब भी तीर्थंकरों द्वारा दीक्षा लेने का समय होता है, उससे पूर्व ये देव अपना जीताचार समझकर तीर्थंकरों को उद्बोधन देने के लिए आते हैं। ये सभी एकावतारी होते हैं यानी अगले ही भव में मोक्ष जाने वाले। नव लोकान्तिक देवों के विमान एवं उनके नाम इस प्रकार हैं
1. अर्ची विमान में रहा हुआ सारस्वत देव। 2. अर्चिमाली विमान में रहा हुआ आदित्य देव। 3. वैरोचन विमान में रहा हुआ वह्रि देव। 4. प्रभकर विमान में रहा हुआ वरुण देव। 5. चन्द्राभ विमान में रहा हुआ गर्दतोय देव। 6. सूर्याभ विमान में रहा हुआ तुषित देव।
जिस प्रकार लाख का यहा अग्नि से तप्त होने पर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्त्रीसहवास से साधु या साधक भी शीघ्र नष्ट हो जाता है।
- सूत्रकृतांग (4/1/27)