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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन * 80 ‘णमो सिद्धाणं' कहकर सिद्धों को नमस्कार करके अभिग्रह लेते हैं कि सभी पापों का मुझे त्याग है। ‘करेमि सामाइयं सव्वं सावज्जंजोगं पच्चक्खामि जाव वोसिरामि' का पाठ वे कहते हैं लेकिन चूंकि वे स्वयंसंबुद्ध होते हैं तथा अन्य गुरु का अभाव होता है, वे भन्ते! भदन्ते ! शब्द का प्रयोग नहीं करते। इस प्रकार प्रभु ने गुर्वाभाव में स्वयं भागवती प्रव्रज्या ग्रहण की। अपने समस्त ऐश्वर्य सुख-संबंध को छोड़ तीर्थंकर दीक्षा लेते हैं। इन्द्रादिक देवतागण भी प्रभु को नमस्कार करके नन्दीश्वर द्वीप की ओर अग्रसर होते हैं, जहाँ वे अट्ठाई महोत्सव मनाते हैं। मनःपर्यव ज्ञान की प्राप्ति ज्ञान मुख्यतया 5 प्रकार के होते हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव एवं केवलज्ञान। प्रथम तीन ज्ञान तो तीर्थंकर को गर्भ से ही होते हैं। दीक्षा लेते ही तीर्थंकर प्रभु को चतुर्थ मनः पर्यव ज्ञान की प्राप्ति होती है। मनः पर्यव ज्ञान के लिए 9 बातें जरूरी होती हैं। 1. मनुष्य भव हो 2. गर्भज हो 3. कर्मभूमिज हो 4. संख्यात वर्ष की आयु हो 5. पर्याप्त हो 6. सम्यग्दृष्टि हो 7. संयमी हो 8. अप्रमत्त हो 9. ऋद्धिप्राप्त आर्य हो प्रव्रज्या एवं सामायिक चारित्र ग्रहण करने के साथ ही प्रभु मनः पर्यवज्ञान के धारक बन जाते हैं। जिससे वे ढाई द्वीप और दो समुद्र तक के समनस्क प्राणियों के मनोगत भावों को जानने में सक्षम बनते हैं। लेकिन वे कोशिश करते हैं कि इसका प्रयोग कम-से-कम करें। प्रथम भिक्षा एवं पंच दिव्याश्चर्य तीर्थंकर जब भी दीक्षित होते हैं, तो किसी-न-किसी तप के साथ दीक्षा लेते हैं। यथाएक उपवास, षष्ठभक्त, छट्ठ, अट्ठम इत्यादि। समवायांग में कहा है- तीर्थंकर ऋषभदेव के अतिरिक्त शेष 23 तीर्थंकरों ने दूसरे ही दिन पारणा किया और भिक्षा में घृत व शक्कर मिश्रित अमृत सदृश मधुर खीर (परमान्न) उन सभी को प्राप्त हुई। श्रमण ऋषभदेव इस अवसर्पिणी काल के प्रथम साधु थे। इसीलिए अन्य लोगों को भिक्षा वोहराना नहीं आता था। क्योंकि ऋषभदेव ने पूर्व भव में 400 बैलों के मुँह पर छींकी लगाकर खाने से रोकने की सलाह दी थी, इसीलिए लाभान्तराय के उदय से उन्हें भी 400 दिनों तक कल्प्य आहार नहीं मिला। एक दिन हस्तिनापुर में उनके पौत्र सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार को जातिस्मरण किसी भी दूसरे जीव की हत्या वास्तव में अपनी ही हत्या है और दूसरे जीव की दया अपनी ही दया है। - भक्तपरिज्ञा (93)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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