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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 81 ज्ञान उत्पन्न हुआ एवं उसने ज्ञान में आहार वोहराने की सम्यग् विधि देखी। उसी के आधार पर उन्होंने श्री ऋषभदेव को इक्षुरस (गन्नों का प्रासुक रस) वोहराया।
अन्य 23 तीर्थंकरों ने दूसरे ही दिन खीर (परमान) से पारणा किया। कल्पसूत्र की टीका में लिखा है कि पात्रधर्म बताने के लिए वे कभी गृहस्थ के कांस्य पात्र में खीर ग्रहण करते थे।
जब प्रभु को भिक्षा दी जाती है, तब पाँच दिव्य प्रकट होते हैं। प्रभु के अतिशय के प्रभाव से 5 आश्चर्य होते हैं- ..
1. देव आकाश में दुंदुभिनाद करते हैं। 2. दाता के घर वस्त्र वृष्टि होती है। 3. दाता के शरीर प्रमाण पुष्प (गंधोदक) वृष्टि होती है। . 4. दाता के घर साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राओं की वसुवर्षा होती है। 5. 'अहोदानं-अहोदानं' की उद्घोषणा होती है।
इसके अतिशय से दाता भी जीवन पर्यंत सुखी-सम्पन्न रहता है। तीर्थंकर, तत्पश्चात्, छद्मस्थावस्था में ध्यान-साधना तथा कर्मों की निर्जरा में लीन रहते हैं।
जिज्ञासा - दीक्षा के समय तीर्थंकर पूर्व या उत्तर की ओर ही क्यों अभिमुख होते हैं ?
समाधान - पूर्व दिशा एवं उत्तर दिशा, इन दोनों की वायु का प्रभाव मन पर बहुत अच्छा पड़ता है। पूर्वदिशा का उगता सूर्य निश्चित रूप से नवीन ऊर्जा का संचार करता है। भरतक्षेत्र की उत्तर दिशा में ही महाविदेह क्षेत्र के विहरमान विराजमान है। इन्हीं अनेक कारणों से वे सदैव इन दिशाओं की ओर ही अभिमुख होते हैं।
जिज्ञासा - देवदूष्य वस्त्र क्या होता है एवं तीर्थंकर इसे क्यों लेते हैं ?
समाधान - दूष्य बहुत कीमती वस्त्र होता है। प्राचीन समय में इसका मूल्य एक लाख (सयसहस्स) कूता गया था। वह शंख, कुंद, जलधारा व समुद्रफेन के समान श्वेत वर्ण का होता है। इसके भी कोयव, पावारग, दाढ़ीआलि, पूरिका, विरलिका आदि भेद हैं। जो दूष्य देवता तीर्थंकर को देते हैं, उसे देवदूष्य कहते हैं। पूर्व के तीर्थंकर ने इसे ग्रहण किया, इसी हेतु को जीताचार समझकर सभी तीर्थंकर देवदूष्य ग्रहण करते हैं।