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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 165 एक है एवं मार्ग अनेक हैं। यह भी सत्य है कि यह एक भव (जन्म) में हो, इसकी गारंटी नहीं है और हजार जन्मों में भी पूर्ण हो, इसकी भी गारंटी नहीं है। जैनधर्म भाव प्रधान धर्म है। मोक्ष की प्राप्ति अन्तर्मुहूर्त में भी संभव है और असंख्य जन्मों में भी । मोक्ष का द्वार : जिनाज्ञा पालन आचार्य हेमचन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. वीतराग स्तोत्र नामक ग्रंथरत्न में कहते हैंवीतरागं ! सपर्यायास्तवाज्ञापालनं परम् । आज्ञाराद्धा विरुद्धा च, शिवाय च भवाय च । इस संसार में स्तवनीय, पूजनीय, वंदनीय अगर कोई भी है तो वह एकमात्र वीतराग तीर्थंकर परमात्मा ही है और इन वीतराग परमात्मा की पूजा की अपेक्षा उनका आज्ञापालन अधिक महत्त्वपूर्ण है। आराधित आज्ञा मुक्ति का कारण है और विराधित आज्ञा संसार और दुखों का कारण है। आज्ञा ही धर्म का प्राण है। जिनपूजा तीर्थंकर की आज्ञा से विरुद्ध हो, तो मुक्ति नहीं दे सकती। मंत्रजाप यदि तीर्थंकर की आज्ञा से विरुद्ध किया जाए, तो यथोचित फल नहीं देता । ध्यान-साधना यदि तीर्थंकरों की आज्ञा के विपरीत की जाए, तो संसारवर्धक हो सकती है। योगविंशिका ग्रंथ की वृत्ति में लिखा है- “ आज्ञारहितस्य तस्यास्थिसंघातरूपत्व प्रतिपादनात् " और संबोध प्रकरण में आचार्य हरिभद्र सूरीश्वर जी फरमाते हैं- “ आणाजुत्तो संघो, सेसो पुण अट्ठि संघाओ”- जो आज्ञा से युक्त है, वह संघ है और जो आज्ञारहित है, वह अस्थियो का समूह (हड्डियों का ढाँचा) है। वर्तमान समय में इस क्षेत्र में तीर्थंकर जीवित अवस्था में नहीं हैं। उनकी अनुपस्थिति में आचार्य भगवन्त जिनशासन को संभालते हैं एवं जिनप्रतिमाएँ व जिनागम ही हमारे आधार हैं। तीर्थंकरों से जुड़ने हेतु प्रतिमाएँ विशेष आलम्बन हैं एवं प्रतिमापूजन की वैज्ञानिकता एवं उससे आत्मविकास स्वत:सिद्ध है। एवं मूल, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, शास्त्र, ग्रंथ आदि वाङ्मय में परम्परा से तीर्थंकर प्रभु की वाणी लिपिबद्ध होकर सुरक्षित है। परमात्मा को हम पर अत्यंत करुणा थी, हम भी उनकी भांति परमात्मा बन सकें, भोग से योग की यात्रा करें, जीव से जिनत्व की यात्रा करें, उस हेतु से हमें मार्ग-दर्शन दिया जो वो आज श्रुत साहित्य में सुरक्षित है। आवश्यकता है उसके सम्यक् आचरण की । आभार । अरिहन्त और सिद्ध ये साध्य तत्त्व हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु ये साधक तत्त्व हैं। ज्ञानयोग, भक्तियोग, तपयोग, कर्मयोग - ये साधना तत्त्व हैं। जिनाज्ञा पालन मोक्ष का अग्र द्वार है। तीर्थंकर परमात्मा का इस पथप्रदर्शन हेतु अनन्तानंत -
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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