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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 164
आत्म-ध्यान साधना
स्वयं की इन्द्रियों, मन आदि को वश में करने वाला तथा स्व-आत्मा का परमात्मा में विलीन करने वाला ध्यान एक उत्कृष्ट साधना पद्धति है। सालम्बन व निरालंबन ध्यान के निमित्त से आर्हन्त्य की सम्यक् प्राप्ति संभव है। प्राचीन जैन परम्परा में महाप्राण नामक ध्यान साधना की पद्धति प्रचलित थी जिसमें साधक विशिष्ट आत्मदर्शन करता था। आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने 12 वर्ष तक नेपाल की गुफाओं में रहकर महाप्राण ध्यान साधना की थी, जिसमें साधक गहरी समाधि अवस्था में चला जाता है।
कभी-कभी यह विचार आता है कि तीर्थंकर परमात्मा संयम अवस्था में किस प्रकार अपनी इन्द्रियों को वश में करते होंगे ? किस प्रकार अपने चित्त का निरोध करते होंगे ? शायद आज जो ध्यान साधना की प्रणालियाँ अथवा पद्धतियाँ हमें प्राप्त हुई हैं, वे अनेक तीर्थंकरों आदि आत्माओं द्वारा अनुभव से प्ररूपित हैं। समस्त विचारों, विकारों, विषयों से विमुक्त होकर ये ध्यान विशुद्धता के पथ पर अग्रसर करते हैं। योग की भी इसमें महती भूमिका है।
श्री आचारांग सूत्र में मानव देह में चेतना के 32 केन्द्रस्थान बताए हैं। जैसे1. पैर 2. टखने
3. जंघा 4. घुटने 5. उरु
6. कटि 7. नाभि
8. उदर (पेट) 9. पार्श्व-पसाल 11.छाती
12. हृदय 14.कन्धे
15. भुजा 17.अंगुलि
18. नाखून 20. ठुड्डी
21. होठ 22. दांत 23.जीभ
24. तालु 25. गला 26.कपोल
27. कान 28. नाक
29.आँख 31. ललाट
32.सिर इन एक-एक स्थान को क्रमश: धीरे-धीरे शिथिल करके मन को परमात्मा से संयुक्त करता हूँ। मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ- इस भेदविज्ञान से परमात्मा से एकमेक होने का प्रयत्न करना चाहिए। हमको भगवान बनाना ही भगवान का लक्ष्य रहा। कोई प्रभुपूजा से परमात्मा से तादात्म्य जोड़ता है, कोई मंत्रजाप से एकरूप होता है, कोई योग-ध्यान साधना से प्रभु से एकमेक होता है। लक्ष्य
30. भौंहें
साधना में मानसिक निर्मलता अनिवार्य है, वही कर्म-निर्जरा का कारण है।
- व्यवहारभाष्य-पीठिका (6/190)