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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 163
2. “रि"- यह अग्निबीज है। यह रूपान्तरित होकर अरिहन्तत्व की विशुद्ध ऊर्जा प्रदान करता
है क्योंकि 'रि' निर्जरा का प्रतीक है। जो हमारे दूषणों, विकारों व बुरे संस्कारों को जलाने का काम करता है। "ह" यह व्योम बीज है। यह आनन्द का प्रतीक है। इसका काम है विस्तार करना, विकसित करना, व्यापकता लाना, तरंगों को फैलाने में सहायक होना। सत् चित् आनंद की यह अनुभूति
कराता है। 4. "त" - यह वायुबीज है। इसका काम पुन: 'अ' की तरह ऊपर उठाना है। जो आर्हन्त्य
हममें विद्यमान है, यह बीज उसका बोध कराता है।
अरिहन्त पद के विशिष्ट कमलबद्ध प्रकार से सम्यक् आराधना करने से भूरि भूरि कर्मनिर्जरा होती है एवं आत्म-आलोचना होती है। अरिहंत पद की उत्कृष्ट कमलबद्ध आराधना से तीर्थंकर • नाम कर्म का भी बंध हो सकता है, ऐसा ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। इसका एक कारण यह भी कि 'अहं' प्रणिधान ध्यान का उत्तमोत्तम आलंबन है। जिनशासन के सारभूत सिद्धचक्र का आदि बीज भी ‘अर्ह' मंत्र ही है। अहँ में अनेक शक्तियाँ निहित हैं, क्योंकि यह उनका बीज है। यथा
. परमेष्ठी बीज - परम पद को प्राप्त तीर्थंकर अरिहंत परमेष्ठी के बीज हैं। तत्त्व की
दृष्टि से वे द्रव्य-भाव अरिहंत हैं। आत्मीयता से वे भाषक सिद्ध हैं। शासन के सूर्य प्रचारक होने से वे उपदेशक आचार्य हैं। शास्त्रों के प्ररूपक होने से वे पाठक उपाध्याय
हैं और निर्विकल्प चित्त होने से वे साधु तो हैं ही। • जिन व सिद्ध बीज - भूत, भविष्य, वर्तमान के सभी जिनेश्वर ‘अहँ' में प्रतिष्ठित हैं। मोक्ष का हेतु होने से यह मोक्ष बीज है। भौतिक दृष्टि से यह सुवर्ण सिद्धि व अनेक महासिद्धियों का भी कारणभूत है। ज्ञान बीज - अहँ ब्रह्मस्वरूप है। इसमें अ से ह, सभी अक्षर कलासहित प्रतिष्ठित माने जाते हैं, इसलिए यह सम्यक् श्रुतज्ञान का बीज माना जाता है। त्रैलोक्य बीज - अर्हम् को शाश्वत, अविनाशी, अभयकारी एवं त्रिलोक-त्रिकाल में व्याप्त माना जाता है। अ, र. ह और म् अत्यंत विशिष्टता के धनी हैं। इसलिए यह मंत्र परम प्रभावक कहा गया है।
आवेशवश यदि साधक कोई चाण्डालिक गलत व्यवहार कर भी ले तो उसे कभी भी न छिपाए। किया हो तो 'किया' कहे और न किया हो तो 'नहीं किया' कहे।
- उत्तराध्ययन (1/11)