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________________ 1. 2. 3. 4. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 162 भाष्य जाप वैखरी वाणी में भाष्य जाप किया जाता है। परमात्मा संबंधी मंत्र भाष्य तथा स्तुति स्तोत्रादि का स्पष्ट उच्चारण यानी जो मुख से बोला जाए व जिसका उच्चारण कानों से सुना जाए, वह वैखरी वाणी से भाग्य जाप होता है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगों से शरीर की व्याधियाँ समाप्त होती हैं और चित्त पर जमे स्थूल विकार कम होते हैं। पशु उपांशु जप मध्यमा वाणी में होता है, जिसमें ओष्ठ (होठ ) और जिह्वा (जीभ) चलती है परन्तु आवाज बाहर सुनाई नहीं देती । बाह्य परिणाम में ग्रंथि प्रभाव के अनुसार जाप से हमारे शरीर की पिच्युटरी ग्रंथि (PITUTIARY GLAND) से 9 रसबिंदुओं का स्राव होता है। आंतरिक परिणाम के अनुसार मध्यमा वाणी के जाप से यथाप्रवृत्तिकरण की प्राप्ति होती है। - मानस जाप मंत्रों का मानस जप और कायोत्सर्गादि पश्यन्ती वाणी से होता है। इसमें भाषा से ऊपर उठकर भावों को देखा जाता है जो मन में से निकलते हैं और मन को ही सुनाई देते हैं। पश्यन्ती के जाप से पिच्युटरी ग्रंथि (PITUTIARY GLAND) से 12 रसबिंदुओं का स्राव होता है एवं अपूर्वकरण तक की प्राप्ति की जा सकती है। - अजपा जाप यह जाप की सबसे उत्कृष्ट अवस्था है । जब परा वाणी द्वारा अक्षर से अनक्षर तक पहुँच जाते हैं, तब ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकरूपता हो जाती है। यह निर्विकल्प समाधि की अवस्था होती है। इसमें ध्याता अपने आत्मा को परमात्म स्वरूप ही देखने लगता है। इससे 16 रसबिंदुओं का स्राव होता है एवं देह व आत्मा का ग्रंथिभेद एवं उत्कृष्ट आत्मदर्शन उपलब्ध हो सकता है । तीर्थंकर या उनसे संबंधित अरिहन्त आदि अन्य मंत्रों का स्वरूप, जाप की पद्धति और परिणाम भी विविध और विस्तृत हैं। परम्परा से ऐसा प्रचलित है कि मात्र ' णमो अरिहंताणं' पद का 400 बार जाप करने से ध्यानी सम्यग्दृष्टि आत्मा एक उपवास का लाभ तक प्राप्त कर सकते हैं। तीर्थंकरों के जाप से अवर्णनीय कर्मनिर्जरा होती है। अर्हम् मन्त्र की विशिष्टता अक्षर विज्ञान के अनुसार 1. “अ” यह वायु बीज है। वायु वाहन का प्रतीक है। वायु हल्की होने से ऊपर उठती है। यह शब्द ऊपर उठाने में सहायक होता है। इस प्रकार 'अ' वायुबीज होकर समाधि एवं कर्मक्षय में सहायक है। वह साधक साधना कैसे कर पाएगा, कैसे श्रामण्य का पालन करेगा, जो काम विषय - राग का निवारण नहीं करता, जो संकल्प-विकल्प के वशीभूत होकर पग-पग पर विवादग्रस्त है । दशवैकालिक (2/1) -
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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