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________________ अरिहन्त पद ध्यान साधना अरिहन्त का अभिप्राय है आर्हन्त्य की अनुभूति। आर्हन्त्य प्रकट कर हम सभी को अरिहन्त बनना है। उनमें भी तीर्थंकर तो परम उत्कृष्ट आत्माएँ हैं। अरिहन्त बनने हेतु आवश्यक है अरिहन्त का तादात्म्य यानी उनके साथ एकमेक हो जाना। आचारांग सूत्र में फरमाया है कि1. उनकी दृष्टि 2. उनका स्वरूप ज्ञान 3. उनका आगमन 4. उनकी चेतसिक अनुभूति और 5. उनका सान्निध्य इन 5 प्रकारों से अरिहंत के साथ एकरूप बना जाता है। यह ध्यान साधना की गूढ़ पद्धति है। तीर्थंकर परमात्मा हमें इस राग द्वेष से मुक्त होकर आत्मा से परमात्मा बनने का उपदेश देते हैं। उनसे एकमेक होने के लिए उनसे त्रैकालिक सम्बन्ध जोड़ना अनिवार्य है। "हे प्रभो ! आप मेरे भविष्य काल और मैं आपका भूतकाल। पहले आपकी आत्मा भी मेरी तरह इस संसार में उलझी थी। हिंसा, असत्य, प्रमाद आदि दोष आपकी जीवात्मा में भी थे। जिस तरह मैं अभी इस व्यापार, परिवार, संसार के मायाजाल में फंसा हूँ, पहले आप भी फंसे थे। मैं आपका भूतकाल ही तो हूँ और मुझे तो आपके जैसा भविष्यकाल चाहिए। राग और द्वेष से मुक्त, सभी विकारों से मुक्त, सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त। आप मेरे भविष्यकाल ही हो और इसलिए वर्तमान काल में मैं आपके द्वारा दिखाए गए पथ का अनुसरण कर रहा हूँ ताकि एक दिन उस गन्तव्य तक पहुँच सकूँ जहाँ आत्मा को शाश्वत सुख है यानी मोक्ष।" तीर्थंकर प्रभु का जाप मन्त्र शक्ति का प्रभाव अचिन्त्य है। नाम निक्षेप के प्रभाव से इससे सकारात्मक ऊर्जा व चैतन्य स्वरूप का सर्जन होता है। निस्संदेह रूप से तीर्थंकर प्रभु का नाम स्वयं में ही मंत्र स्वरूप है व इसका मंत्रोच्चारण व नामस्मरण कर्मनिर्जरा का अद्वितीय माध्यम है। जैन आम्नाय में 4 प्रकार के जाप बताए गए हैं आचार की प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करना चाहिए। - दशवैकालिक (9/3/2)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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