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________________ सम्पादकीय जिनधर्म - जिनशासन के आद्य पुरस्कर्ता तीर्थंकर परमात्मा इस लोक की अद्वितीय अलौकिक अतिशयविभूति हैं। पंजाबकेसरी आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. ने फरमाया है करो टुक मेहर ऐ स्वामी, अजब तेरा दीदारा है। नहीं सानी तेरा कोई, लिया जग ढूँढ सारा है। इस संसार में ऐसी कोई योनि नहीं है, ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ पर हमारा जन्म-मरण न हुआ हो लेकिन फिर भी हम भवभ्रमण से मुक्त नहीं हुए। तीर्थंकर परमात्मा का हम पर अनंतानंत उपकार है जिन्होंने हमें जन्म-जरा-मृत्यु के बंधनों से मुक्त करने के लिए करुणा का अपार स्रोत बहाया। उनके हृदय में बस एक ही भावना होती है - 'जो होवे मुज शक्ति इसी, सवि जीव करूँ शासन-रसी' जो स्वयं तिरा है, वही अन्य को तिरा सकता है। तीर्थंकर परमात्मा भी 'तिन्नाणं तारयाणं' की भावना से ओत प्रोत होते हैं। उनके जैसी वीतरागता, उनके जैसा ज्ञान, उनके जैसा पुण्य, उनके जैसी करुणा समूचे लोक में अन्य किसी की आत्मा में नहीं है। • तीर्थंकर परमात्मा का उपदेश हमें 'अपना' बनाने के लिए नहीं, बल्कि अपने जैसा' बनाने के लिए होता है। ऐसे परमोपकारी-परमपिता-परमेश्वर तीर्थंकर परमात्मा का आदर्श जीवन हम सभी के लिए अक्षय प्रेरणा का अनुपम स्रोत है। भ्रान्ति और क्रान्ति से दूर, शान्ति पथ के पावन पथिक तीर्थंकर परमात्मा के बारे में जानना नितान्त आवश्यक है। 'जैन' शब्द की गरिमा 'जिन' से जुड़ने पर है। कई व्यक्तियों के मन में नाना प्रकार के प्रश्न उठते हैं। कई प्रश्न श्रद्धा से शान्त होते हैं और कई प्रश्न तर्क से शान्त होते हैं। जिस प्रश्न की शान्ति श्रद्धा से होनी चाहिए, वहाँ तर्क लगाना गलत है। उसी प्रकार जहाँ तर्क से शांति होनी चाहिए, वहाँ केवल श्रद्धा की बात करना उचित नहीं है। युवा पीढ़ी इस बात से पूर्णत: परिचित है अतः उसे तीर्थंकर पद को इस द्विविध दृष्टि से समझने की भी विशेष उत्कण्ठा है।
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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