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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 18 16.| मंगलावती (रत्नसंचया) | 17.| पद्म (अश्वपुरी) | 18. सुपद्म (सिंहपुरी) 19. महपद्म (महापुर) 20. पद्मावती (विजयपुर) | 21. शंख (अपराजिता) 22. कुमुदिनी (अरजा) 23. नलिन (अशोका) | 24. नलिनावती (वीतशोका) 25. वप्र (विजया) 26. सुवप्र (वैजयन्ती। 27.| महावप्र (जयन्ती) 28. वप्रावती (अपराजिता) 29. वल्गु (चक्रपुरी) 30. सुवल्गु (खड्गपुरी) 31.| गंधिल (अवध्या) | 32.| गंधिलावती (अयोध्या) तीर्थंकरों का जन्म कब ? जैन कालचक्र के अनुसार अवसर्पिणी काल (उतरता काल) एवं उत्सर्पिणी काल (चढ़ता काल) होते हैं। दोनों के छह छह विभाग (आरे) हैं। भरत-ऐरावत क्षेत्र में कालचक्र का नियम होता है। अत: तीर्थंकरों का जन्म तीसरे आरे के अंत में तथा चौथे आरे में होता है। अतएव तीर्थंकरों का समागम हमेशा नहीं रहता। यथा- पहले, दूसरे, तीसरे आरे में युगलिक परम्परा होती है। उसके अंत के बाद तीर्थंकरों का क्रमश: जन्म होता है, जिसका प्रभाव पंचम आरे तक होता है। महाविदेह क्षेत्र इस नियम से मुक्त हैं। वहाँ हमेशा चौथे आरे जैसा समय रहता है। अलगअलग विजयों में तीर्थंकरों का जन्म-दीक्षा-केवलज्ञान निर्वाण एक ही समय होते हैं। उनके मोक्षगमन के पश्चात् ही नवीन तीर्थंकरों की उत्पत्ति होती है। अत: वहाँ तीर्थंकरों का विचरण सदैव रहता है। हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक और घोर संसार रूपी अटवी में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा। - मरण समाधि (590)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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