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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 11 सूक्ष्म रूप से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि दोनों परम्पराओं में तीर्थंकर पद प्राप्त करने की साधना पद्धति में कोई मौलिक भेद नहीं है। क्रम में भेद होने पर भी अधिकतम पद समान हैं। तीर्थंकर बनने के मार्ग में जैनधर्म ने मूल प्रधानता भावों को ही दी है। कोई भी क्रिया दूषित-अपवित्र भावों से की हो, वह फलदायक नहीं होती। अर्थात् जब तक मन में पवित्र भाव न हो, तब तक अकेले तपश्चर्या से. दान-पुण्य से. ज्ञानाराधन से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन नहीं होता। अत: सर्व जीवों का कल्याण, उद्धार करने की भावना, सभी जीवों को जिनशासनरसिक बनाने की भावना, ऐसी उत्तमोत्तम भावना अनिवार्य है। साधक तन्मयता से इन बीस पदों को आत्मसात् कर लेता है। जीवन में एकरस हो जाता है, बाह्य आडम्बरों को छोड़ अपना आत्मबल विकसित कर लेता है, और साथ-साथ उत्कृष्ट कक्षा के भावों की भावना करता है, तब ही वह तीर्थंकर नाम कर्म का बंध कर सकता है। इन बीस स्थानकों की आराधना विभिन्न आत्माएँ करती आई हैं, करती हैं एवं करती रहेंगी किन्तु फिर भी सभी तीर्थंकर नाम कर्म का बंध नहीं कर पाते। इसका प्रमुख कारण है 'भाव'। तीर्थंकर पद-प्राप्ति के लिए स्वयं के एवं अन्य के कल्याण की शुभ भावना परमावश्यक है। __जिनके हृदय में केवल स्व-कल्याण की भावना हो, वे अंतकृत केवली बन सकते हैं। जिनके हृदय में स्व-कल्याण एवं अपने कुटुम्बीजनों के कल्याण की भावना हो, वे सामान्य केवली बन सकते हैं एवं जिनके रोम-रोम में संसार के एक-एक जीव के कल्याण की भावना हो, वे ही तीर्थंकर बन सकते हैं। जब जीव के हृदय में संसार के प्राणीमात्र के प्रति असीम अपार करुणा हो, नरक गति के जीव हों या निगोद गति के जीव हों, एक-एक आत्मा को मोक्ष पथ से जोड़ने की तड़प हो, सभी जीवों को सिद्धत्व का शाश्वत सुख प्रदान करने की प्रबलतम भावना हो, 'सवि जीव करूँ शासन रखी' का उत्कृष्ट भाव हो, ऐसी करुणामयी भावना एवं बीस स्थानक आराधना का मेल ही तीर्थंकर पद की चाबी है। एक भव की साधना से मोक्ष तो सीधा मिल सकता है लेकिन तीर्थंकर पद प्राप्त कर मोक्ष जाने के लिए कम-से-कम तीन जन्मों की मेहनत लगती है। तीर्थंकर नाम कर्म की विशिष्टता : तीर्थंकर पद को प्राप्त करने का परम निमित्त तीर्थंकर कर्म है। इसी कर्म के हेतु से तीर्थंकर लब्धि प्राप्त होती है, जिससे ही समस्त ऋद्धियाँ, अतिशय प्राप्त होते हैं। यह शंका कई बार उत्पन्न होती है कि जब तीर्थंकर कृतकृत्य हैं- उन्हें जब कुछ भी करने की इच्छा बाकी नहीं रही है, तो वे देशना, उपदेश भी किस कारण से देते हैं ? इस शंका का परिहार करते हुए श्री शास्त्रकार महर्षि लिखते हैं सत्य को धारण कर, उससे विचलित न हो। सत्य में रत रहने वाला मेधावी सर्व पापकर्म का शोषण । कर डालता है। - आचाराङ्ग (1/3/2)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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