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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 12 तीर्थप्रवर्तनफलं यदागमोक्तं कर्म तीर्थंकरनाम। तस्योदयात्कृतार्थोऽप्यर्हस्तीर्थं प्रवर्तयति ॥ तत्स्वभावादेव प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम्। तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थंकरनाम एवम् ॥ . भावार्थ : तीर्थंकर नामकर्म के कारण ही तीर्थंकर चतुर्विध संघतीर्थ की स्थापना करते हैं। इसी कर्म के उदय होने पर बिना इच्छा के भी तीर्थंकर भगवन्त देशना देते हैं। __कोई सामान्य केवलज्ञानी तीर्थ की स्थापना नहीं कर सकता क्योंकि उसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं किया। तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित करने वाली आत्मा जघन्य रूप से (कम से कम) तीसरे भव में एवं उत्कृष्ट रूप से (अधिक-से-अधिक) पन्द्रहवें भव में तीर्थंकर पद प्राप्त करती है। तीर्थंकर एक महान् पद है। तीर्थंकर नामकर्म उत्तमोत्तम निमित्त है एवं बीस स्थानक तप आराधना एक शाश्वत प्रक्रिया है। तीर्थंकर बने हुए सकल भगवानों ने भगवान होने से पूर्व के भव में तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया था। भविष्य में भी जितने भी तीर्थंकर उत्पन्न होंगे, उन्होंने भी तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया होगा। अत: तीर्थंकर एवं तीर्थंकर नाम कर्म गृढार्थ अभिन्न शब्द हैं। तीर्थंकर पद-प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है- तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन व बीस स्थानक आराधन जिसका बंध पुरुष वेद, स्त्री वेद एवं नपुंसक वेद तीनों में किया जा सकता है किन्तु फल भोगते हुए (तीर्थंकर रूप में) केवल पुरुष वेद ही प्राप्त होता है। जब तक परमेश्वर बनने वाली वह आत्मा तीर्थंकर बन नहीं जाती, तब तक वह द्रव्य तीर्थंकर के रूप में वंदनीय रहती है। आवश्यक नियुक्ति व वृत्ति में लिखा है- “तच्चप्रारम्भबन्धसमयादारभ्य सततमुपचिनोति यावदपूर्वकरणसंख्येयभागैरिति केवलिकाले तु तस्योदयः।" अर्थात् तीर्थंकर नाम कर्म की उत्कृष्ट बन्धस्थिति एक कोटाकोटी सागरोपम है। जिस समय नामकर्म की इस उत्कृष्ट प्रकृति का बंध प्रारम्भ होता है तबसे लेकर अपूर्वकरण (क्षपकश्रेणी) के संख्येय भाग मात्र तक इस कर्मप्रकृति का सतत उपचय होता रहता है तथा केवलज्ञान की अवस्था में उदय। यहीं तक की अवस्था भाव तीर्थंकर की है। कर्मबंध दो प्रकार का होता है - निकाचना रूप और अनिकाचना रूप। अनिकाचित बंध फल देता है अथवा नहीं भी देता है और किसी भी भव में बाँधा जा सकता है। जबकि निकाचित एकाकी रहने वाले साधक के मन में प्रतिक्षण नाना प्रकार के विकल्प उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं। अत: सज्जनों की संगति में रहना ही श्रेष्ठ है। -बृहत्कल्प भाष्य (57/19)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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