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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 110 11. 7. देवदुंदुभि - देवतागण दुंदुभि नामक वाजिंत्र बजाते हैं। 8. छत्रत्रय - रत्नजड़ित तीन छत्र प्रभु के मस्तक के ऊपर होते हैं। ज्ञानातिशय - ज्ञानावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय होने से तीर्थंकर सर्वज्ञ होते हैं, लोकालोक को सम्पूर्ण रीति से जानते हैं। केवलज्ञान द्वारा तीर्थंकर जगत् के सभी रूपी-अरूपी पदार्थों को, सभी पर्यायों को प्रत्यक्ष जानते हैं, ऐसा उनका ज्ञानातिशय है। पूजातिशय - सामान्य जन ही नहीं, देव देवेन्द्र चौंसठ इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि सभी लोग व सम्यक्त्वी तिर्यंच भी परमात्मा की विशेष पूजा भक्ति करते हैं। अपायापगम-अतिशय - अपाय अर्थात् उपद्रव, अपगम यानी नाश। भगवान का सर्वजीवों के प्रति करुणा व समभाव होता है। इस अतिशय के प्रभाव से समवसरण में आने वाले जीवों का वैर विसर्जित हो जाता है, शांति छा जाती है। प्रभु जहाँ-जहाँ विचरते हैं, वहाँ प्रत्येक दिशा में सवा सौ योजन तक अकाल आदि नहीं होता और जीव परम शांति का अनुभव करते हैं। वचनातिशय - तीर्थंकर प्रभु की अमोघ - अस्खलित वाणी होती है। देव-मनुष्य तिर्यञ्च प्रभु की वाणी को अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। 35 गुणों से युक्त वाणी के द्वारा सभी आकर्षित होते हैं। इस प्रकार 12 गुणों का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। किन्तु उपर्युक्त 12 गुणों का प्रतिपादन बाह्य विभूतियों की अपेक्षा किया गया है। जैन वाङ्मय में निम्नलिखित 12 गुण भी बताए हैं जिनका संबंध तीर्थंकर की आत्मा की उच्चता से है1. अनंत ज्ञान - सभी द्रव्यों की तीनों काल की अनन्त पर्यायों को एक साथ जानना अनन्त ज्ञान है। अनंत दर्शन - अनंत द्रव्य-गुण-पर्यायें व लोकालोक एक साथ सामान्यपने से दिखाई दें उसे अनंत दर्शन है। अनंत वीर्य - अंतराय कर्म के क्षय से आत्मा जब अनंत (परिपूर्ण) शक्तिमान बन जाता है, वह अनंत वीर्य है। 4. अनंत चारित्र - संकल्प-विकल्प रहित आत्मा में रमण कर स्थिर रहना, उस चर्या को अनंत चारित्र कहते हैं। अहिंसा, सत्य आदि रूप धर्म सब प्राणियों का पिता है, क्योंकि वही सब का रक्षक है। - नन्दीसूत्र-चूर्णि (1)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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