________________
तीर्थंकरों की विशिष्टता
तीर्थंकर नामकर्म, तीर्थंकर लब्धि एवं कर्मनिर्जरा के प्रभाव से तीर्थंकरों में असाधारण अलौकिक लब्धियाँ, ऋद्धियाँ, अतिशय एवं गुण उत्पन्न होते हैं। यह तीर्थंकर परमात्मा का वैशिष्ट्य ही है, जिसके कारण वे जगप्रसिद्ध होते हैं एवं साधारण जन से अलग होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा का पुण्य अनन्त होता है। 'तीर्थंकर भगवन्त एक नगरी से दूसरी नगरी में विहार कर रहे हैं' उनका यह समाचार जब चक्रवर्ती, वासुदेव और मांडलिक राजा को मिलता है, तब वे अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और सूचना देने वाले अनुचर को बहुत इनाम देते हैं। चक्रर्वी साढ़े बारह लाख स्वर्णमुद्रा, वासुदेव साढ़े बारह लाख रुपये और माण्डलिक राजा साढ़े बारह लाख रुपये का प्रीतिदान करते हैं। यहाँ कुछ ऐसी ही विशिष्टताओं की चर्चा की जा रही हैतीर्थंकरों के बारह (12) गुण
तीर्थंकर प्रभु तो अनन्तानंत गुणों के भंडार हैं। उनकी गुणविशालता अतुलनीय अविश्वसनीय होती है किन्तु यही सत्य है। उच्च कर्मोदय से सम्प्राप्त उनमें अरिहन्त स्वरूप ऐसे विशिष्ट 12 गुण होते हैं जो किसी अन्य आत्मा में नहीं होते हैं।
समवायांग एवं हरिभद्रकृत संबोध सत्तरी में तीर्थंकर के निम्नलिखित 12 गुण बताए हैं, जिनमें अष्ट प्रातिहार्य एवं चार अतिशय सम्मिलित किए गए हैं, जो इस प्रकार हैं1. अशोक वृक्ष-प्रभु के देह से 12 गुणा ऊँचा अशोक वृक्ष समवसरण में बनाया जाता है। 2. सुरपुष्पवृष्टि - देवतागण प्रभु पर पुष्पों की वृष्टि करते हैं। 3. दिव्यध्वनि - प्रभु की वाणी में देवता वाजिंत्र-वाद्य द्वारा स्वर पूरते हैं। 4. चामर - प्रभु के दोनों ओर चौसठ चामर वींझे जाते हैं। 5. आसन - समवसरण में प्रभु के लिए रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन रचा जाता है। 6. भामंडल - प्रभु का तेज संहरने हेतु भामंडल रचा जाता है।
अहिंसा, संयम और तप रूप शुब्द धर्म उत्कृष्ट मंगलमय है। जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
- दशवैकालिक (1/1)