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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 111 5. अनंत सुख - तीर्थंकर की आत्मा के सहज स्वाभाविक आनंद की अनुभूति को अनंत सुख
कहते हैं। क्षायिक समकित - दर्शनमोह एवं अनंतानुबंधी के क्षय से विशुद्ध आत्मीयता को क्षायिक समकित कहा जाता है। शुक्ल ध्यान - तेरहवें गुणस्थानक में स्थित तीर्थंकर को जो निर्विकल्प शुद्ध ध्यान होता है वह शुक्ल ध्यान है। अनन्त दानलब्धि - आत्मा की शक्ति जिससे अनंत दान मिलने की स्वाभाविक योग्यता प्राप्त हो, वह अनंत दानलब्धि है। अनंत लाभलब्धि - जिससे आत्म स्वरूप का अनंत लाभ प्राप्त हो, आत्मा की ऐसी दिव्य शक्ति अनंत लाभलब्धि होती है। अनंत भोगलब्धि - आत्मा की शक्ति जिसके द्वारा प्रतिक्षण अनन्त ऐश्वर्य का भोग है,
वह अनन्त भोगलब्धि है। 11. अनंत उपभोगलब्धि - आत्मा के आनन्द का प्रवाह रूप में पुनः पुनः अनुभव हो, वह
. अनंत उपभोगलब्धि है। 12. अनंत वीर्यलब्धि - जिसके आलंबन से आत्मा तेरहवें गुणस्थानक में रहने की शक्ति रखती
हो, वह अनंत वीर्यलब्धि है। अठारह दोष रहित तीर्थंकर
जिस आत्मा के चार घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं, उस आत्मा में किसी भी प्रकार का विकार या. दोष नहीं रह सकता। ऐसी अवस्था में आत्मा निर्दोष निष्कलंक निर्विकार और पापमुक्त होती है। अतः तीर्थंकर परमात्मा में दोष का लेश मात्र भी नहीं रहता। किन्तु यहाँ पर जिन दोषों के अभाव की चर्चा की जा रही है वे उपलक्षण मात्र हैं। इन दोषों का अभाव प्रकट करने से समस्त दोषों का अभाव समझ लेना चाहिए अर्थात् जिनमें ये 18 दोष नहीं है, उस आत्मा में अन्य दोष होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
प्रवचन सारोद्धार एवं सत्तरियसय ठाणावृत्ति आदि ग्रन्थों में ये दोष दो प्रकार से गिनाए हैं। यथा
पंचेव अन्तराया मिच्छत्तमन्नाणमविरइ कामो।
हास छग राग दोसा निद्दाऽट्ठारस इमे दोसा॥ धर्म की धुरा को खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है?
- उत्तराध्ययन (14/17)