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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 0 112 1. दानांतराय लाभान्तराय 3. वीर्यान्तराय 4. भोगान्तराय 5. उपभोगान्तराय 6. मिथ्यात्व 7. अज्ञान 8. अविरति 9. काम (वेद) 10. हास्य 11. रति 12. अरति 13. शोक 14. भय 15. जुगुप्सा 16. राग 17. द्वेष 18. निद्रा हिंसाइ तिगं कीला, हासाइ पंचगं च चउ कसाया।' भय मच्छर अन्नाणां, निद्दा पिम्मं इअ व दोसा॥ दूसरी दृष्टि से 18 दोष इस प्रकार हैंहिंसा - तीर्थंकर ‘मा हन अर्थात् किसी भी जीव को मत मारो, ऐसा उपदेश देते हैं। वे स्वयं सभी जीवों की मन, वचन एवं काया द्वारा हिंसा से सर्वथा निवृत्त होते हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र में लिखा है- 'सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयण भगवया सुकाहियं।" 2. मृषावाद - अरिहंत होने से तीर्थंकर कभी मिथ्या भाषण नहीं करते, न ही अपना वचन पलटते हैं। तीर्थंकर भगवान शुद्ध सत्य की ही प्ररूपणा करते हैं। अदत्तादान - मालिक की आज्ञा बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना चोरी (अदत्तादान) है। तीर्थंकर निरीह (इच्छा रहित) होते हैं व यत्किंचित् किसी प्रकार का पदार्थ ग्रहण नहीं करते। क्रीडा - मोहनीय कर्म से रहित होने के कारण तीर्थंकर सभी प्रकार की क्रीडाओं से निवृत्त होते हैं। गाना, बजाना, रास खेलना, दौड़ना, भोग लगाना इत्यादि क्रियाओं के दोष से वे मुक्त होते हैं। 5. हास्य - किसी अद्भुत अपूर्व वस्तु या क्रिया को देखकर हँसी आती है। लेकिन तीर्थंकर सर्वज्ञ हैं, उनके लिए कोई वस्तु अपूर्व नहीं है। उनके मुख पर मुस्कुराहट जरूर होती है किन्तु उन्हें कभी भी हंसी नहीं आती। रति - इष्ट वस्तु की प्राप्ति से होने वाली प्रसन्नता रति है। तीर्थंकर को किसी वस्तु का मोह नहीं होता, वे वीतरागी-अकषायी हैं। अत: वे किञ्चित्मात्र भी रति का अनुभव नहीं करते। 7. अरति - प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति पर जो उद्वेग होता है वह अरति है। तीर्थंकर समभावी होते हैं। अनिष्ट वस्तु के संयोग होने पर भी वे कभी अप्रीत (दुःखी) नहीं होते। जो अपनी आत्मा को अनुशासन में रखने में समर्थ नहीं है, वह दूसरों को अनुशासित करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? - सूत्रकृताङ्ग (1/1/2/17)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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