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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 38 तीर्थंकर महावीर के षट्कल्याणक ? सभी तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं, ऐसा शाश्वत सत्य है । किन्तु कुछ विद्वान् चरम तीर्थपति तीर्थंकर महावीर के षट्-कल्याणक का उल्लेख करते हैं। वह इसलिए क्योंकि वे महावीर प्रभु के दो च्यवन कल्याणक गिनाते हैं। दरअसल पिछले भवों के कुल मद के कारण मरीचि का जीव तीर्थंकर भव में ब्राह्मण कुल में च्यवित हुआ था। तत्पश्चात् इन्द्र ने हरिणैगमैषी देव के द्वारा गर्भ संहरण करवाकर क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ की भार्या त्रिशला रानी की कुक्षि में रखा । अतः कुछ लेखक इन्हें अलग-अलग कल्याणक गिनते हैं । किन्तु जहाँ तक हमारी धारणा है- (1) षट्रकल्याणक की मान्यता मूलभूत पंच कल्याणक के विरुद्ध है (2) प्रभु एक ही बार देवगति से च्युत हुए (3) इन्द्रादि देवतागण ने दोनों बार अलग-अलग उत्सव नहीं मनाया लेकिन, जैनधर्म अनेकान्तवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। अतः हम उनके मत का भी पूर्ण आदर-सम्मान करते हैं। गर्भ - परिपालना एवं दोहद - उत्पत्ति च्यवन से लेकर जन्म तक, तीर्थंकर की माता बहुत ही सावधानी पूर्वक अपने गर्भ का पालन करती है। वह उत्तम रूप से देवपूजा, स्नानादि कर उत्तम आभूषण धारण करती है। माता ऊँची नीची अधिक नहीं फिरती एवं सुकोमल शय्या पर सुखासन में बैठती है । तीर्थंकर की माता अपने भोजन का विशेष ध्यान रखती है। वह अतिशीत ( ठण्डा), अतिउष्ण (गर्म), अति कटु (कड़वा) अति कषायित ( कसैला ), अति मिष्ट (मीठा ) इत्यादि प्रकार के भोजन का परिहार करती है ताकि गर्भ पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े। वह ऋतु सन्तुलित भोजन करती है। विधि के अनुसार ही वह सभी काम करती है। अनुकूल पौष्टिक गर्भकाल में वयोवृद्धा एवं अनुभवी महिलाएँ माता की सेवा करती हैं। माता स्वयं भी चिन्ता, शोक, दैन्य, भय, त्रास से बचकर, क्रोध न करके शान्त, प्रसन्नचित्त मुद्रा में रहती है। ऐसी अवस्था में तीर्थंकर की माता को दोहद उत्पन्न होते हैं। गर्भ के प्रभाव से माता को जो विशेष कार्य करने की इच्छा होती है उन्हें दोहद की संज्ञा दी गई है। वर्तमान चौबीसी के कई तीर्थंकरों की माताओं को अनेक दोहद उत्पन्न हुए, जिन्हे तीर्थंकर के पिता, इन्द्र की सहायता से परिपूर्ण करते हैं। तीर्थंकर पद्मप्रभ की माता सुसीमा को पद्मशय्या में शयन करने का दोहद हुआ । चन्द्रप्रभ तीर्थंकर की माता को चन्द्रपान करने का दोहद हुआ । श्रेयांस प्रभु की माता को देवता परिगृहीत शय्या पर बैठने का दोहद उत्पन्न हुआ । अन्तिम तीर्थंकर महावीर जो जन्मा है, उसे अवश्य मरना होगा । - अन्तकृदशांग (6/15/18)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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