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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 143 जैनधर्म ने हमेशा विकृति से संस्कृति में समा जाने के लिए पुरुषार्थ किया है और संस्कृति में आकर प्रकृति में समाने के लिए उद्यम किया है। यही उत्तारवाद है। प्रकृति से विकृति में आना अवतारवाद है। चूँकि अवतारवाद तो जड़ है, इसने कृपावाद जैसे अनेक सिद्धान्तों को जन्म दिया। जैन परम्परा में व्यक्ति किसी की कृपा से नहीं. स्वयं के पुरुषार्थ से भगवान बनता है। यही अवतारवाद तथा उत्तारवाद में प्रमुख अन्तर है। तीर्थंकर अवतार नहीं हैं अवतारों तथा तीर्थंकरों का परम उद्देश्य समान ही होता है- धर्मसंस्थापना । अवतार अधर्म तत्त्व से मुक्ति दिलाकर लोगों में धर्म के प्रति सद्भाव की वृद्धि करते हैं । तीर्थंकर भी अहिंसा, अपरिग्रह आदि गुणयुक्त साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूपी चतुर्विध धर्मसंघ की संस्थापना करते हैं। दोनों स्वयं उपदेष्टा हैं, निष्क्रिय हैं एवं अन्य को सक्रिय होने की प्रेरणा देते हैं। वे स्वयं किसी व्यक्ति विशेष की उपासना नहीं करते। फिर भी भक्तों द्वारा उपास्य होते हैं। लेकिन हम तीर्थंकर को अतिशयकारी ही कह सकते हैं, अवतार नहीं । जैनधर्म ने तीर्थंकर को ईश्वर का अंश नहीं माना है और न ही दैवी सृष्टि का अजीब प्राणी माना है । तीर्थंकर चौबीस हुए हैं। वे सभी भिन्न आत्माएँ हैं। किसी एक आत्मा ने चौबीस बार तीर्थंकरत्व ग्रहण नहीं किया। जैन आम्नाय में "अप्पा सो परमप्पा” का सिद्धान्त माना है अर्थात् शुभयोगों में आत्मा ही परमात्मा बनती है। कोई भी व्यक्ति साधना करके तीर्थंकर बन सकता है, इसके लिए किसी की कृपा की आवश्यकता नहीं है। तीर्थंकरों का जीव अतीत में एक दिन हमारी तरह ही संसार के दलदल में फँसा जीव था । वह भी पापकर्मों की कालिमा से लिप्त था, अज्ञान के अंधकार से भरा था। संसार की असारता जानकर, धर्म का मर्म जानकर, प्रत्येक जीव के प्रति मैत्री - कारुण्य भावना भा कर ही यह सत्संगति से प्रभावित हो गया एवं उच्च कर्मों का बंध किया। पता नहीं, हममें से कौन कल तीर्थंकरत्व को प्राप्त कर जाए। यह भी भूलना नहीं चाहिए कि जब तक तीर्थंकर का जीव संसार के भोग-विलास में उलझा हुआ था, तब तक वह वस्तुतः तीर्थंकर नहीं था। तीर्थंकर बनने के लिए उसने अनन्त पुण्यों का संचय किया, अनंतानंत कष्ट सहे एवं सांसारिक सुखों का त्याग किया। कषायों को अग्नि कहा गया है। उसे बुझाने के लिए ज्ञान, शील और तप शीतल जल है । - उत्तराध्ययन (23/53)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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