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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन / 144 पूर्वभवों में सम्यग्ज्ञान, दर्शन-चारित्र एवं तप की उत्कृष्ट आराधना कर ही उसने नामकर्म की उच्च प्रकृति का बंध किया। उसकी आत्मोन्नति, आत्मोद्धार, आत्मविकास के मार्ग में जो कोई कंटक आया, उसने सभी का त्याग किया, सभी शूलों का डटकर सामना किया। तीर्थंकर बनने के भव में भी जब तक वह गृहस्थावस्था में सांसारिक बंधनों से लिप्त था, तब तक भी वह तीर्थंकर नहीं था। नौकर, चाकर, धन, रत्न आदि सभी प्रकार के राज्य वैभव का वह त्याग कर वर्षों तक साधक जीवन जीता है। न खाने को योग्य भोजन, न ओढ़ने के लिए वस्त्र, ऐसे अनन्त परिषहों को वह जीव सहन करता करता, ध्यान साधना करता करता शुक्लध्यान के योग में पूर्ण ज्ञान-आत्मज्ञान केवलज्ञान को प्राप्त करता है। तब वह तीर्थ की स्थापना करता है और तीर्थंकर कहलाता है। तीर्थंकर सर्वत्र अहिंसा का जयघोष करते हैं। वे पापी का संहार नहीं करते, बल्कि उसे पापों का संहार करने की प्रेरणा देते हैं। जीवनपर्यन्त वे शुभ ध्यान में लीन रहते हुए, संसार की असारता को ध्याते हुए सिद्धत्व का परम लक्ष्य पाते हैं। सभी कर्मों का क्षय होने पर वे सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो, अक्षय सुख के साथ, कर्माभाव दशा में रहते हैं। मोक्षगामी व्यक्ति तो जन्म-जरा-मृत्यु के बंधनों से छूटकर सिद्धशिला पर विराजमान है और फिर कभी संसार में वापिस नहीं आता। अतः ये पूर्णरूपेण स्पष्ट है कि तीर्थंकर अवतार नहीं होते। चक्षु-इन्द्रिय की आसक्ति का इतना बुरा परिणाम होता है कि मूर्ख पतंगा जलती हुई अग्नि में गिरकर मर जाता है। __ - ज्ञाताधर्मकथा (1/17/4)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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