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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 142
भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध में 24 अवतारों का उल्लेख है 1. सनकादि 7.
यज्ञ
13. मोहिनी 14. नरसिंह
2. वराह
8. ऋषभदेव
9.
15. वामन
10. मत्स्य
16. परशुराम
17. व्यास
3. नारद
4. नरनारायण
5. कपिल
6. दत्तात्रेय
राजा पृथु
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19. बलराम
20. श्रीकृष्ण
21. बुद्ध
22. कल्कि
23. हंस
24. हयग्रीव
11. कच्छप 12. धन्वन्तरि
18. राम
इस प्रकार कहीं पर 9, कहीं पर 100, कहीं पर अनन्त अवतार लेने का वर्णन है । किन्तु जैनधर्म में अवतारवाद का सिद्धान्त स्वीकार्य नहीं है।
अवतारवाद एवं उत्तारवाद
उत्तारवाद यानी नीचे से ऊपर जाना अर्थात् मानव का ईश्वर बनना । जैन धर्म उत्तारवाद का ही समर्थन करता है। वैदिक धर्म यह सिखाता है कि भगवान् को पाना कैसे है, भगवान को मिलना कैसे है लेकिन जैनधर्म बताता है कि भगवान बनना कैसे है ।
जैन आम्नाय मानता है कि पापी बुरा नहीं होता, पाप बुरा होता है। पाप का गला घोटना चाहिए, पापी का नहीं। अतः पापी को सुधारना चाहिए क्योंकि पापी को मारना अधर्म का नाश नहीं है। इसी कारण जैन दर्शन को अवतारवाद के सिद्धान्त में कोई सार दृष्टिगोचर नहीं होता । अवतारवाद ईश्वरत्व को अपमानित करने के समान है क्योंकि कोई परम आत्मा अन्य के निमित्त नर-संहार नहीं करेगी। अवतार उन्हीं का होता है जो कर्म, इच्छा, मोह, माया एवं अविद्या से युक्त. हो और जो इन चीजों से युक्त हो वह कभी भगवान बन ही नहीं सकता और जो एक बार इन सभी को छोड़कर भगवान बन चुका है वह वापिस इनसे लिप्त क्यों होगा ?
परम्परा अनुसार एक ही आत्मा जो भगवान पद से विभूषित है, अनेक बार अवतार ग्रहण करती है। कहीं नौ, चौबीस सौ, असंख्य इत्यादि अवतार गिनाए हैं लेकिन जैनधर्म मानता है कि जो एक बार भगवान बन गया, वो बस भगवान बन गया। फिर वह किसी भी कारण से सं में नहीं आ सकता। जो कर्मों से युक्त है, वो सिद्ध नहीं बन सकता और सिद्ध दोबारा कभी कर्मों से युक्त नहीं हो सकते।
अगर अधर्म की कालिमा से प्रभावित होकर 'भगवान' अवतार लेते, तो वे आज भारत में क्यों नहीं ? स्पष्ट है, भगवान भक्तों का आलम्बन नहीं लेते बल्कि भक्त ही भगवान का आलंबन लेते हैं।
उपशम (शान्ति) से क्रोध का हनन करें, मृदुता से मन को जीतें, ऋजुभाव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीते। दशवैकालिक ( 8/38)