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________________ तीर्थंकर एवं अवतार कई व्यक्ति सोचते हैं कि तीर्थंकर अवतार होते हैं जो उनकी जैनदर्शन सम्बंधी मूलभूत अनभिज्ञता दर्शाता है। अवतार और तीर्थंकरों का उद्देश्य जरूर एक होता है लेकिन तीर्थंकरों को अवतार कहना निश्चय रूप से अनुचित है, असैद्धान्तिक है। . अवतार क्या और क्यों ? 'अवे तृस्त्रोघञ् अवतारं' अर्थात् किसी उच्च स्थल से नीचे उतर कर आना, दैवीय शक्ति के प्रभाव से दिव्य लोक से भूतल पर उतर कर आना अवतार कहलाता है। एक बार भगवान बन चुकी दिव्य आत्मा का फिर से धरती पर उतरने वाले महापुरुष को अवतार कहते हैं। श्रीमद् भगवत गीता की दृष्टि में ईश्वर तो मानव बन सकता है लेकिन मानव कभी ईश्वर नहीं बन सकता। उसके अनुसार सृष्टि के चारों ओर अधर्म के अंधकार को नष्ट करने के लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि अवतार ग्रहण करके पृथ्वी पर आते हैं। यथा यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्॥ अवतारवाद में ईश्वर को स्वयं भक्तों की पुकार सुनकर अधर्म के नाश के लिए मानव बनकर खुद नीचे आना पड़ता है, भक्तों की रक्षा के लिए नरसंहार भी करना पड़ता है, भक्तों के लिए रागी द्वेषी बनना पड़ता है। वैदिक परम्परा के विचारकों ने इस विकृति को 'लीला' कहकर आवरण डालने का प्रयास किया है। शिवपुराण, नरसिंहपुराण में 10 अवतारों का वर्णन किया है - मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, हंस, कल्कि (बलराम)। वायुपुराण, ब्रह्माण्डपुराण में भी 10 अवतारों का उल्लेख है किन्तु नामों में भिन्नता है - वैन्य, दत्तात्रेय, मान्धाता, नरसिंह, वामन, जामदग्न्य, राम, कृष्ण, वेदव्यास और कल्कि। क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करने वाला है, माया मैत्री का विनाश करती है और लोभ सब (प्रीति, विनय और मैत्री) का नाश करने वाला है। - दशवैकालिक (8/37)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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