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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 140
जिज्ञासा - तीर्थंकर पद पाना कठिन है या सिद्ध पद पाना ?
समाधान - अनन्तानंत आत्माएँ सामान्य केवली के मार्ग से सिद्धत्व को प्राप्त करती है लेकिन तीर्थंकर सिद्ध तो सीमित ही होते हैं। अतः तीर्थंकर बनना कठिन है एवं सामान्यकेवली बनकर सिद्ध बनना सरल है।
एक बात और। तीर्थंकर पद प्राप्त करने के लिए कम-से-कम 3 भवों के पुण्य का संचय चाहिए लेकिन सिद्धत्व की प्राप्ति एक भव के कर्मक्षय से भी हो सकती है।
जिज्ञासा - तीर्थंकरों का लक्ष्य भी सिद्धत्व की प्राप्ति है, फिर भी नवकार मंत्र में अरिहंतों को वंदन पहले क्यों होता है ?
समाधान - निश्चय नय की दृष्टि से सिद्ध परमात्मा बड़े हैं क्योंकि उन्होंने सभी कर्मों का क्षय कर लिया है, लेकिन व्यवहार नय की अपेक्षा तीर्थंकर (अरिहन्त) परमात्मा ज्येष्ठ हैं, क्योंकि सशरीरी होने के कारण वे ही हमें धर्मदेशना-धर्मबोध देकर सिद्ध बनना सिखाते हैं। सिद्ध हमें बोध देने सिद्धशिला से नहीं आते। अन्य रूप में विचारें तो अरिहंत भी भाषक सिद्ध ही है। (प्रज्ञापना सूत्र) इसके अलावा अरिहंत पद अधिक दुर्लभ है। अत: व्यवहार पक्ष को लेकर हम तीर्थंकरों को सिद्धों से पहले वन्दन करते हैं। .
जिज्ञासा - चार शाश्वत जिन से क्या तात्पर्य है ?
समाधान - जिन, तीर्थंकर कभी शाश्वत नहीं होते। उनके नाम जरूर शाश्वत हो सकते हैं। पाँच भरत क्षेत्र, पाँच ऐरावत क्षेत्र एवं दस क्षेत्र में प्रत्येक अवसर्पिणीउत्सर्पिणी काल में 24-24 तीर्थंकर होते हैं। उनमें ऋषभ, चन्द्रानन, वारिषेण और वर्द्धमान ये चार नाम वाले तीर्थंकर होते ही हैं। राजप्रश्नीय सूत्र में लिखा है'तासिणं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमा ओं जिणुस्सेहपमाणमेताओ.... जहा उसभा, वद्धमाणा, चंदाणणा, वारिसेण'। देवलोकों आदि में शाश्वत चैत्यों में भी उक्त 4 नामों की प्रतिमाएँ विराजित हैं।
वर्तमान चौबीसी भरतक्षेत्र में ऋषभ, वर्द्धमान हुए। ऐरावत क्षेत्र में चंद्रानन एवं वारिषेण नाम के तीर्थंकर हुए।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये संक्षेप में आठ कर्म हैं।
- उत्तराध्ययन (64-65)